Book Title: Bhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 153
________________ जेण विणा वि लोगस्स ववहारो सव्वहा न निव्वडई। तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतावस्स।। इस प्रकार, हम देखते हैं कि अनेकांत एवं स्याद्वाद के सिद्धान्त दार्शनिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक जीवन के विरोधों के समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत करते हैं, जिससे मानव जाति को संघर्षों के निराकरण में सहायता मिल सकती है। संक्षेप में, अनेकान्त विचार-पद्धति के व्यावहारिक क्षेत्र में तीन प्रमुख योगदान हैं 1. विवाद पराङ्गमुखता या वैचारिक संघर्ष का निराकरण। 2. वैचारिक सहिष्णुता या वैचारिक अनाग्रह (विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन)। 3. वैचारिक समन्वय और एक उदार एवं व्यापक दृष्टि का निर्माण। बौद्ध आचार दर्शन में वैचारिक अनाग्रह बौद्ध आचारदर्शन में मध्यम मार्ग की धारणा अनेकान्तवाद की विचारसरणी का ही एक रूप है। इसी मध्यम मार्ग के वैचारिक क्षेत्र में अनाग्रह की धारणा का विकास हुआ है। बौद्ध विचारकों ने भी सत्य को अनेक पहलुओं से युक्त देखा और यह माना कि सत्य को अनेक पहलुओं के साथ देखना विद्वत्ता है। थेरगाथा में कहा गया है कि जो सत्य का ही पहलू देखता है, वह मूर्ख है।" पण्डित तो सत्य को सौ (अनेक) पहलुओं से देखता है। वैचारिक आग्रह और विवाद का जन्म एकांगी दृष्टिकोण से होता है, एकांगदर्शी ही आपस में झगड़ते हैं और विवाद में उलझते हैं।29 बौद्ध विचारधारा के अनुसार आग्रह, पक्ष या एकांगी दृष्टि राग में रत होता है। वह जगत् में कलह और विवाद का सृजन करता है और स्वयं भी आसक्ति के कारण बंधन में पड़ा रहता है। इसके विपरीत, जो मनुष्य दृष्टि, पक्ष या आग्रह से ऊपर उठ जाता है, वह न तो विवाद में पड़ता है और न बंधन में। बुद्ध के निम्न शब्द बड़े मर्मस्पर्शी हैं- जो अपनी दृष्टि से दृढ़ाग्रही हो, दूसरे को मूर्ख और अशुद्ध बताने वाला होता है वह स्वयं कलह का आह्वान करता है। किसी धारणा पर स्थित हो, उसके द्वारा वह संसार में विवाद उत्पन्न करता है, जो सभी धारणाओं को त्याग देता है, वह मनुष्य संसार में कलह नहीं करता।"

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