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रखना होगा कि जहां तक सर्वज्ञ के आत्मबोध का प्रश्न है, वह निरपेक्ष हो सकता है, क्योंकि वह विकल्प रहित होता है। सम्भवतः, इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर आचार्य कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा था कि व्यवहार दृष्टि से सर्वज्ञ सभी द्रव्यों को जानता है, किन्तु परमार्थतः तो वह आत्मा को ही जानता है। वस्तुस्थिति यह है कि सर्वज्ञ का आत्मबोध तो निरपेक्ष होता है, किन्तु उसका वस्तु विषयक ज्ञान सापेक्ष होता है। (द) भाषा की अभिव्यक्ति- सामर्थ्य की सीमितता और सापेक्षता
__ सर्वज्ञ या पूर्णज्ञ के लिए भी, जो सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, सत्य का निरपेक्ष कथन या अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। सम्पूर्ण सत्य को चाहे जाना जा सकता हो, किन्तु कहा नहीं जा सकता। उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, तो वह सापेक्षिक बन जाता है, क्योंकि सर्वज्ञ को भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए उसी भाषा का सहारा लेना होता है, जो कि सीमित एवं अपूर्ण है, 'है' और 'नहीं' की सीमा से घिरी हुई है। अतः, भाषा पूर्ण सत्य को निरपेक्षतया अभिव्यक्त नहीं कर सकती है।
प्रथम तो वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है, जबकि मानवीय भाषा की शब्द संख्या सीमित है। जितने वस्तु धर्म हैं, उतने शब्द नहीं हैं, अतः अनेक धर्म अनुक्त या अकथित रहेंगे ही। पुनः मानव की जितनी अनुभूतियां हैं, उन सबके लिए भी भाषा में पृथक्-पृथक् शब्द नहीं हैं। हम गुड़, शकर, आम आदि की मिठास को भाषा में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकते, क्योंकि सभी की मिठास के लिए अलग-अलग शब्द नहीं हैं। आचार्य नेमिचंद्र 'गोम्मटसार' में लिखते हैं कि हमारे अनुभूत भावों का केवल अनन्तवां भाग ही कथनीय होता है और जितना कथनीय है, उसका भी एक अंश ही भाषा में निबद्ध करके लिखा जाता है (गोम्मटसार, जीवकांड 334)। चाहे निरपेक्ष ज्ञान को सम्भव भी मान लिया जाए, किन्तु निरपेक्ष कथन तो कदापि सम्भव नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी कहा जाता है, वह किसी न किसी संदर्भ में (in a certain context) कहा जाता है और इस संदर्भ में ही उसे ठीक प्रकार से समझा जा सकता है, अन्यथा भ्रांति होने की संभावना रहती है, इसीलिए जैन आचार्यों का कथन है कि जगत् में जो कुछ भी कहा जा सकता है वह सब किसी विवक्षा या नय से गर्भित होता है। जिन या सर्वज्ञ की वाणी भी अपेक्षारहित नहीं होती है। वह सापेक्ष ही होती है। अतः, वक्ता का कथन समझने के लिए भी अपेक्षा का विचार आवश्यक है।