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पुनश्च, जब वस्तुतत्त्व में अनेक विरुद्ध धर्म युगल में रहे हुए हैं, तो शब्दों द्वारा उनका एक साथ प्रतिपादन सम्भव नहीं है। उन्हें क्रमिक रूप में ही कहा जा सकता है। शब्द एक समय में एक ही धर्म को अभिव्यक्त कर सकता है। अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के समस्त धर्मों का एक साथ कथन भाषा की सीमा से बाहर है, अतः किसी भी कथन में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त या अकथित ही रह जाएंगे और एक निरपेक्ष कथन अनुक्त धर्मों का निषेध करने के कारण असत्य हो जाएगा। हमारा कथन सत्य रहे और हमारे वचनव्यवहार से श्रोता को कोई भ्रांति न हो, इसलिए सापेक्षिक कथन पद्धति ही समुचित कही जा सकती है। जैनाचार्यों ने स्यात् को सत्य का चिह्न " इसीलिए कहा है कि वह अपेक्षापूर्वक कथन करके हमारे कथन को अविरोधी और सत्य बना देता है तथा श्रोता को कोई भ्रांति भी नहीं होने देता है।
स्याद्वाद और अनेकान्त
साधारणतया, अनेकान्त और स्यावाद पर्यायवाची माने जाते हैं।“ अनेक जैनाचार्यों ने इन्हें पर्यायवाची बताया भी है, किन्तु फिर भी दोनों में थोड़ा अन्तर है। अनेकान्त स्यावाद की अपेक्षा अधिक व्यापक द्योतक है। जैनाचार्यों ने दोनों में व्यापकव्याप्य भाव माना है। अनेकान्त व्यापक है और स्याद्वाद व्याप्य। अनेकान्त वाच्य है, तो स्याद्वाद वाचक। अनेकान्त वस्तु स्वरूप है, तो स्याद्वाद उस अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा पद्धति। अनेकान्त दर्शन है, तो स्यावाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग।
विभज्यवाद और स्याद्वाद
विभज्यवाद, स्यावाद का ही एक अन्य पर्यायवाची एवं पूर्ववर्ती है। सूत्रकृतांग में महावीर ने भिक्षुओं के लिए यह स्पष्ट निर्देश दिया है कि वे विभज्यवाद की भाषा का प्रयोग करें। इसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने भी मज्झिमनिकाय में स्पष्ट रूप से कहा था कि हे माणवक! मैं विभज्यवादी हूँ, एकान्तवादी नहीं। विभज्यवाद वह सिद्धान्त है, जो प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देता है। जब बुद्ध से यह पूछा गया कि गृहस्थ आराधक होता है या प्रव्रजित? उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा कि गृहस्थ एवं त्यागी यदि मिथ्यावादी हैं, तो आराधक नहीं हो सकते, किन्तु यदि दोनों ही सम्यक् आचरण करने वाले हैं, तो दोनों