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महावीर ने कहा है- यदि सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिए जाएं तो भी यह तृष्णा शांत नहीं हो सकती, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो, वह सीमित है और तृष्णा अनन्त (असीम)है, अतः सीमित साधनों से असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती। ___वस्तुतः, तृष्णा के कारण संग्रहवृत्ति का उदय होता है और यह संग्रहवृत्ति आसक्ति के रूप में बदल जाती है। यही आसक्ति परिग्रह का मूल है। दशवैकालिक के अनुसार आसक्ति ही वास्तविक परिग्रह है। भारतीय ऋषियों के द्वारा अनुभूत यह सत्य आज भी उतना ही यथार्थ है, जितना कि उस युग में था, जब इसका कथन किया गया था। न केवल जैन दर्शन में अपितु बौद्ध और वैदिक दर्शनों में भी तृष्णा को समस्त सामाजिक वैषम्य और वैयक्तिक दुःखों का मूल कारण माना गया है, क्योंकि तृष्णा से संग्रहवृत्ति उत्पन्न होती है, संग्रह शोषण को जन्म देता है और शोषण से अन्याय का चक्र चलता है। भगवान् बुद्ध का भी कहना है कि यह तृष्णा दुष्पूर है और जब तक तृष्णा नष्ट नहीं होती, तब तक दुःख भी नष्ट नहीं होता। 'धम्मपद' में वे कहते हैं कि जिसे यह विषैली और नीच तृष्णा घेर लेती है, उसके दुःख उसी प्रकार बढ़ते हैं, जिस प्रकार खेती में वीरण घास बढ़ती है। भगवान् बुद्ध ने इस तृष्णा को तीन प्रकार का माना है-1. भव तृष्णा, 2. विभव तृष्णा और 3. काम तृष्णा। भवतृष्णा अस्तित्व या जीवन बने रहने की है, यह रागस्थानीय है। विभवतृष्णा समाप्त हो जाने या नष्ट हो जाने की तृष्णा है, यह द्वेष-स्थानीय है। कामतृष्णा भोगों की उपलब्धि की तृष्णा है और यही परिग्रह का मूल है। गीता में भी आसक्ति को ही जागतिक दुःखों का मूल कारण माना गया है। 'गीता' में यह स्पष्ट किया गया है कि आसक्ति का तत्त्व ही व्यक्ति को संग्रह और भोगवासना के लिए प्रेरित करता है। 'गीता' यह भी स्पष्ट रूप से कहती है कि आसक्ति में बंधा हुआ व्यक्ति काम-भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक संग्रह करता है। इस प्रकार, सम्पूर्ण भारतीय चिंतन संग्रहवृत्ति के मूल कारण के रूप में तृष्णा को स्वीकार करता है। संत सुंदरदासजी ने इस तथ्य का एक सुंदर चित्र खींचा है। वे बताते हैं कि किस प्रकार यह तृष्णा, संग्रह की उद्दाम वृत्तियों को जन्म दे देती है। वे लिखते हैं
जो दस बीस पचास भये, शत होइ हजार तु लाख मांगेसी। कोटि अरब्ब खरब्ब, धरापति होने की चाह जगेगी। स्वर्ग पताल को राज करो, तिसना अधिकी अति आग लगेगी।