Book Title: Bhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 118
________________ प्रश्न कई विचारकों के सम्मुख है। तत्कालीन समाज व्यवस्था का जो चित्र जैन आगमों में विद्यमान है, उससे यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उस युग में भी आर्थिक विषमताएं और तज्जन्य द्वेष, ईर्ष्या आदि सब कुछ थे। तत्कालीन समाज व्यवस्था का जो शब्दचित्र लगभग 2500 वर्ष पश्चात् आज भी उपलब्ध है, उससे यह कहा जा सकता है कि उस समय समाज के सदस्यों में संग्रहवृत्ति भी थी, इस कारण जहां एक व्यक्ति बहुत अधिक धनी था, वहीं दूसरा व्यक्ति अत्यधिक अभावग्रस्त था। एक ओर शालिभद्र जैसे श्रेष्ठि थे, तो दूसरी ओर पणिया जैसे निर्धन श्रावक। बड़े-बड़े सामन्त और सेठ अपने यहां नौकर-चाकर रखते थे। केवल यही नहीं, अपितु दास प्रथा तक विद्यमान थी। डॉ.जगदीशचन्द्र ने अपनी पुस्तक 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज' में 'ऋणदास', 'दुर्भिक्षदास' आदि का उल्लेख करते हुए बताया है कि इस प्रकार के दासों की मुक्ति किस प्रकार हुआ करती थी? तात्पर्य यह है कि तत्कालीन समाज व्यवस्था में अर्थ के सद्भाव तथा अभाव ( Haves & Haves not) की समस्या थी। निश्चित रूप में, इस कारण विषमता, द्वेष, ईर्ष्या-सब हुआ करती होंगी। यदि हम जैन आगम उपासकदशांग का अवलोकन करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाएगा कि कुछ लोगों के पास कितनी प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति थी। केवल यही नहीं, अपितु धन के उत्पादन के मुख्य साधन (भूमि, श्रम, पूंजी एवं प्रबंध) पर उनका अधिकार (चाहे एकाधिकार न हो) था। संक्षेप में कहा जा सकता है कि उस युग में एक ओर समाज के कुछ सदस्यों के पास विपुल सम्पत्ति तथा अर्थोपार्जन के प्रमुख साधन विपुल मात्रा में थे, तो दूसरी ओर कुछ लोग अभाव और गरीबी का जीवन जी रहे थे। महावीर ने समाज में उपस्थित इस आर्थिक विषमता के कारण की खोज की और मानव की तृष्णा को इसका मूल कारण माना। संग्रहवृत्ति या परिग्रह का मूल कारण-'तृष्णा' ___भगवान् महावीर ने 'उत्तराध्ययनसूत्र ' में आर्थिक विषमता तथा तज्जनित सभी दुःखों का कारण तृष्णा की वृत्ति को माना। वे कहते हैं कि जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसके दुःख भी समाप्त हो जाते हैं। वस्तुतः, तृष्णा का ही दूसरा नाम लोभ है और इसी लोभ से संग्रहवृत्ति का उदय होता है। 'दशवैकालिकसूत्र' में लोभ को समस्त सदगुणों का विनाशक माना गया है। जैन विचारधारा के अनुसार तृष्णा एक ऐसी दुष्पूर खाई है, जिसका कभी अंत नहीं होता। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में इसी बात को स्पष्ट करते हुए भगवान्

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