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वैराग्य, 9. श्रुतांग, 10. तृप्ति, 11. दया, 12. विमुक्ति, 13. क्षान्ति, 14. सम्यक् आराधना, 15. महती, 16. बोधि, 17. बुद्धि, 18. धृति, 19. समृद्धि, 20. ऋद्धि, 21. वृद्धि, 22. स्थिति (धारक), 23. पुष्टि (पोषक), 24. नन्द (आणंद), 25. भद्रा, 26. विशुद्धि, 27. लब्धि, 28. विशेष दृष्टि, 29. कल्याण, 30. मंगल, 31. प्रमोद, 32. विभूति, 33. रक्षा, 34. सिद्धावास, 35. अनास्रव, 36. कैवल्यस्थान, 37. शिव, 38. समिति, 39. शील, 40. संयम, 41. शील परिग्रह, 42. संवर, 43. गुप्ति, 44. व्यवसाय, 45. उत्सव, 46. यज्ञ, 47. आयतन, 48. यतन, 49. अप्रमाद, 50. आश्वासन, 51. विश्वास, 52. अभय, 53. सर्व अनाघात (किसी को न मारना), 54. चोक्ष (स्वच्छ), 55. पवित्र, 56. शुचि, 57. पूता, 58. विमला, 59. प्रभात और 60. निर्मलतरा।
इस प्रकार, जैन आचार दर्शन में अहिंसा शब्द एक व्यापक दृष्टि को लेकर उपस्थित होता है। उसके अनुसार, सभी सद्गुण अहिंसा के ही विभिन्न रूप हैं और अहिंसा ही एकमात्र सद्गुण है।
अहिंसा क्या है?
हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है। यह अहिंसा की निषेधात्मक परिभाषा है, लेकिन मात्र हिंसा को छोड़ना अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों का स्पर्श नहीं करती। वह एक आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती है। निषेधात्मक अहिंसा मात्र बाह्य बनकर रह जाती है, जबकि आध्यात्मिकता तो आंतरिक होती है। हिंसा नहीं करना- यह अहिंसा का शरीर हो सकता है, अहिंसा की आत्मा नहीं। किसी को नहीं मारना, यह अहिंसा के संबंध में मात्र स्थूल दृष्टि है, लेकिन यह मानना भ्रांतिपूर्ण होगा कि
जैन विचारणा अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित रही है। जैन आचार दर्शन का केन्द्रीय तत्त्व अहिंसा शाब्दिक रूप में यद्यपि नकारात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सदैव ही विधायक रही है। सर्व के प्रति आत्मभाव, करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से ही अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। हिंसा नहीं करना- यही मात्र अहिंसा नहीं है। अहिंसा क्रिया नहीं, सत्ता है, जो हमारी आत्मा की एक अवस्था है। आत्मा की प्रमत्त अवस्था ही हिंसा है और अप्रमत्त अवस्था ही अहिंसा है। आचार्य भद्रबाहु ओघनियुक्ति में लिखते हैं -पारमार्थिक दृष्टिकोण से आत्मा ही