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प्रयोग का प्रश्न है, जो अब शत्रु बन गए हैं। युद्ध के प्रति उसकी हिचक आध्यात्मिक विकास या सत्व गुण की प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु अज्ञान और वासना की उपज है। अर्जुन इस बात को स्वीकार करता है कि वह दुर्बलता और ममत्व के वशीभूत हो गया है। गीता हमारे सम्मुख जो आदर्श उपस्थित करती है, वह हिंसा का नहीं, अपितु अहिंसा का है। कृष्ण अर्जुन को आवेश या दुर्भावना के बिना, राग और द्वेष के बिना युद्ध करने को कहते हैं और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति में ले जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि गीता भी अहिंसा की समर्थक है। मात्र अन्याय के प्रतिकार के लिए अद्वेष-बुद्धिपूर्वक विवशता में करना पड़े, ऐसी हिंसा का जो समर्थन गीता में दिखाई पड़ता है, उससे यह नहीं कहा जा सकता कि गीता हिंसा की समर्थक है। अपवाद रूप में हिंसा का समर्थन नियम नहीं बन जाता। ऐसा समर्थन तो हमें जैनागमों में भी उपलब्ध हो जाता है।
अहिंसा का आधार
अहिंसा की भावना के मूलाचार के संबंध में विचारकों में कुछ भ्रांत धारणाओं को प्रश्रय मिला है, अतः उन पर सम्यक्रूपेण विचार कर लेना आवश्यक है। मैकेन्जी ने अपने 'हिन्द एथिक्स' में इस भ्रांत विचारणा को प्रस्तुत किया है कि अहिंसा के प्रत्यय का निर्माण भय के आधार पर हुआ है। वे लिखते हैं-असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों को भय की दृष्टि से देखते हैं और भय की यह धारणा ही अहिंसा का मूल है, लेकिन मैं समझता हूँ, कोई भी प्रबुद्ध विचारक मैकेन्जी की इस धारणा से सहमत नहीं होगा। जैनागमों के आधार पर भी इस धारणा का निराकरण किया जा सकता है। अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान एवं समत्वभावना है। समत्वभाव से सहानुभूति, समानुभूति एवं आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं, जीवन के प्रति सम्मान से विकसित होती है। दशवैकालिक में कहा गया है-सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, अतः निर्ग्रन्थ प्राणवध (हिंसा) का निषेध करते हैं। वस्तुतः, प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य की स्थापना करता है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययनसूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की