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उत्तराध्ययसूत्र में कहा गया है कि चाहे सामान्य रूप से गृहस्थों की अपेक्षा श्रमण को श्रेष्ठ माना जाए, किन्तु कुछ गृहस्थ ऐसे भी होते हैं, जो श्रमणों की अपेक्षा संयम के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं। महावीर के शासन में महत्त्व वेश का नहीं है, आध्यात्मिक निष्ठा का है। आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में श्रेष्ठता और निम्नता का आधार आध्यात्मिक जागरूकता, अप्रमत्तता, अनासक्ति और निराकुलता है। जिसका चित्त निराकुल और शान्त है, जो अपने कर्तव्यपथ पर पूरी ईमानदारी के साथ चल रहा है, जिसकी अन्तरात्मा निर्मल और विशुद्ध है, वह महावीर के मुक्ति पथ पर चलने का अधिकारी है।
__ भगवान् महावीर ने अपने धर्म-मार्ग में साधना एवं संघ व्यवस्था की दृष्टि से गृहस्थ को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। यदि मध्यवर्ती युगों को देखें, तो भी यह बात अधिक सत्य प्रतीत होती है, क्योंकि मध्ययुग में भी जैन धर्म और संस्कृति को सुरक्षित रखने में गृहस्थ वर्ग का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने न केवल भव्य जिनालय बनवाये और ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाकर साहित्य की सुरक्षा की, अपितु अपने त्याग से संघ और समाज की सेवा भी की। यदि हम वर्तमान काल में जैनधर्म में गृहस्थ वर्ग के स्थान और महत्त्व के संबंध में विचार करें, तो आज भी ऐसा लगता है कि जैनधर्म के संरक्षण और विकास में गृहस्थ वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्पूर्ण भारत में एक प्रतिशत जनसंख्या वाला यह समाज सेवा
और प्राणी-सेवा के क्षेत्र में आज भी अग्रणी स्थान रखता है। देश में जनता के द्वारा संचालित जनकल्याणकारी संस्थाओं अर्थात् विद्यालय, महाविद्यालय, चिकित्सालय, गौशालाएं, पांजरापोल, अल्पमूल्य की भोजनशालाओं आदि की परिगणना करें, तो यह स्पष्ट है कि देश में लगभग 30 प्रतिशत लोकसेवी संस्थाएं जैन समाज के द्वारा संचालित हैं। एक प्रतिशत की जनसंख्या वाला समाज यदि 30 प्रतिशत की भागीदारी देता है, तो उसके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। एक दृष्टि से देखें, तो महावीर के युग से लेकर आज तक जैनधर्म, जैन समाज और जैन संस्कृति के संरक्षण का महत्त्वपूर्ण दायित्व श्रावक वर्ग ने ही निभाया है, चाहे उसे प्रेरणा और दिशाबोध श्रमणों से प्राप्त हुआ हो। इस प्रकार, सामान्य दृष्टि से देखने पर महावीर के युग और आज के युग में कोई विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता। __किन्तु, जहाँ चारित्रिक निष्ठा के साथ सदाचारपूर्वक नैतिक आचार का प्रश्न है, आज स्थिति कुछ बदली हुई प्रतीत होती है। महावीर के युग में गृहस्थ साधकों के धनबल और सत्ताबल की अपेक्षा चारित्रबल को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता था। स्वयं भगवान् महावीर ने मगध सम्राट श्रेणिक को पुनियां श्रावक के पास भेजकर धनबल और सत्ताबल पर चारित्रबल की महत्ता का आदर्श उपस्थित किया था। साधना के क्षेत्र में धनबल और सत्ताबल की अपेक्षा चारित्रबल प्रधान है। अपने प्रधान शिष्य और 14,000 निग्रंथ भिक्षुओं |||| --- (70
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