Book Title: Bhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 68
________________ लोभ के आवेग हमारी मानसिक समता को भंग करते हैं। विशेष रूप से राग और द्वेष की वृत्ति के कारण हमारे चित्त में तनाव उत्पन्न होते हैं और इसी मानसिक तनाव के कारण हमारा बाह्य व्यवहार भी असंतुलित हो जाता है, इसलिए भगवान् महावीर ने राग-द्वेष और कषायों अर्थात् अहंकार, लोभ आदि की वृत्तियों पर विजय को आवश्यक माना था। वे कहते थे, कि जब तक व्यक्ति राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ जाता है, तब तक वह मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। वीतरागता ही महावीर की दृष्टि में जीवन का सबसे बड़ा आदर्श है। इसी की उपलब्धि के लिए उन्होंने 'समभाव की साधना' पर बल दिया। यदि महावीर की साधना-पद्धति को एक वाक्य में कहना हो, तो हम कहेंगे कि वह समभाव की साधना है। उनके विचारों में धर्म का एकमात्र लक्षण 'समता' है। वे कहते हैं कि समता ही धर्म है। जहाँ समता है, वहाँ धर्म है और जहाँ विषमताएँ हैं, वहीं अधर्म है। आचारांग में उन्होंने कहा था कि आर्यजनों ने समत्व की साधना को ही धर्म बताया है। समत्व की यह साधना तभी पूर्ण होती है, जबकि व्यक्ति क्रोध, मान, माया और लोभ जैसे आवेगों पर विजय पाकर रागद्वेष की वृत्ति से ऊपर उठ जाता है। वर्तमान युग में मानव जाति में जो मानसिक तनाव दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं, उनका कारण राग-द्वेष की वृत्तियों का मनुष्य पर अधिक हावी हो जाना है। वस्तुतः, व्यक्ति की ममता, आसक्ति और तृष्णा ही इन तनावों की मूल जड़ है और महावीर इनसे ऊपर उठने की बात कहकर मनुष्य को तनावों से मुक्त करने का उपाय सुझाते हैं। आचारांग में वे कहते हैं कि जितना, जितना ममत्व है, उतना-उतना दुःख और जितना-जितना निर्ममत्व है, उतना ही सुख है। उनके अनुसार, सुख और दुःख वस्तुगत नहीं, आत्मगत हैं। वे हमारी मानसिकता पर निर्भर करते हैं। यदि हमारा मन अशान्त है, तो फिर बाहर से सुख-सुविधा का अंबार भी हमें सुखी नहीं कर सकता है। 2. सामाजिक एवं जातीय संघर्ष ____ सामाजिक और जातीय संघर्षों के मूल में जो प्रमुख कारण रहे हैं- वह यह कि व्यक्ति अपने अन्तस् में निहित ममत्व व राग-भाव के कारण मेरे परिजन, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र-ऐसे संकुचित विचार विकसित कर अपने 'स्व' को संकुचित कर लेता है। परिणामस्वरूप, अपने और पराये का भाव उत्पन्न होता है, फलतः भाई-भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता आदि का जन्म होता है। आज मनुष्य-मनुष्य के बीच सुमधुर सम्बन्धों के स्थापित होने में यही विचार सबसे अधिक बाधक है। हम अपनी रागात्मकता

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