Book Title: Bhagavati Jod 06
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सर्वार्थसिद्ध में सन्नी मनुष्य ऊपज, तेहनों अधिकार' ११५. सव्वदसिद्धग सूरा हे प्रभु ! किहां थकी उपजत जी?
ऊपजवोज विजयादि नों, जिम कह्यो तिमज ए हुंत जी ।। ११६. यावत ते भगवंतजी! केतला काल नी ताय जी।
स्थितिक विषे तिको ऊपजै? ताम कहै जिनराय जी ।। ११७. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट थी, तेतीस सागर तेह जी।
काल स्थितिक विषे ऊपजै, मनु ऊपजवा योग्य जेह जी ।।
११५. सव्वट्ठगसिद्धगदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ?
उववाओ जहेव विजयादीणं, ११६. जाव ---
(श० २४.३५७) से णं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उववज्जेज्जा? ११७. गोयमा ! जहण्णण तेत्तीससागरोवमट्टितीएसु,
उक्कोसेण वि तेत्तीससागरोवमट्टितीएसु
उववज्जेज्जा। ११८. अवसेसा जहा विजयाइसु उववज्जंताणं,
११९. नवरं-भवादेसेणं तिण्णि भवग्गहणाई,
११८. शेष परिमाण नैं आदि दे, विजयादिक विषे विख्यात जी।
ऊपजता नैं जिम आखियो, तिमज कहि अवदात जी ।। ११९. भवादेशे करि तीन भव, प्रथम मनुष्य नुं पेख जी।
द्वितीय सर्वार्थसिद्ध सुरा, तृतीय फुन मनु भव लेख जी ।। १२०. काल आदेश करि जघन्य थी,
सुर स्थिति उदधि तेतीस जी। पृथक जे वर्ष बे अधिक फुन,
मनुष्य भव स्थिति जगीस जी। १२१. उत्कृष्ट उदधि तेतीस सुर, पूर्व कोड़ बे न्हाल जी।
एतलो काल सेवै तिको, ए गति-आगति काल जी ।।
१२०. कालादेसेणं जहण्णणं तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहिं
वासपुहत्तेहिं अभहियाई,
१२१. उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोषमाइं दोहिं पुव
कोडीहिं अब्भहियाई, एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा १
(श० २४१३५८) १२२. सो चेव अप्पणा जहण्णकालद्वितीओ जाओ, एस चेव
वत्तव्वया, नवरं१२३. ओगाहणा-ठितीओ रयणिपुहत्त-वासपुहत्ताणि । सेसं
तहेव । संवेहं च जाणेज्जा २। (श० २४१३५९)
१२२. तेहिज आपणपै थयो, जघन्य काल स्थितिकवंत जी।
एहिज वक्तव्यता तस्, णवरं विशेष कहंत जी । १२३. पथक कर नी अवगाहना, पथक वर्ष स्थिति तास जी। शेष तिमहीज कहिवो सहु, संवेध जाणवू जास जी ।।
सोरठा १२४. कालादेश संवेह, जघन्य अनै उत्कृष्ट थी।
दधि तेतीस सुरेह, वर्ष पृथक बे अधिक ही ।। १२५. *ते हिज आपण थयं, जिष्ठ काल स्थितिकमंत जी ।
एहिज वक्तव्यता तनु, णवरं विशेष ए हंत जी ।। १२६. मनु भव में अवगाहना, जघन्य अने उत्कृष्ट जी।
पांचसौ धनुष्य नी जाणवी, आउखो हिव तसु इष्ट जी ॥ १२७. स्थिति तसु जघन्य थी कोड़ पुव्व,
उत्कृष्ट पिण पूर्व कोड़ जी। शेष तिमहिज कहिवो सहु, लद्धी परिमाणादि जोड़ जी ।। १२८. यावत भव आत्रयी लगै, काल तसु जघन्य उत्कृष्ट जी।
तेतीस सागर सुर भवे, बे पुत्व कोड़ मनु इष्ट जी ।।
१२५. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ, एस
चेव वत्तवया, नवरं१२६. ओगाहणा जहणेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि
पच धणुसयाई। १२७. ठिती जहणणं पुवकोडो, उक्कोसेण वि पुटवकोडी।
सेसं तहेव
१२८. जाव भवादेसो त्ति । कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीस
सागरोवमाइं दोहि पुवकोडीहिं अब्भहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई,
*लय : मम करो काया माया १. देखें परि. २, यंत्र १६०
श० २४, उ० २४, ढा० ४३२ २०५
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