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धर्म और दर्शन (ब्रह्मचर्य)
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आत्मगवेपी पुरुष के लिए देह विभूषा, स्त्री-ससर्ग और प्रणीतरस का स्वादिष्ट भोजन तालपुट विष के समान है ।
१३६ जिन पुरुषो ने स्त्री ससर्ग और शरीर शोभा को तिलाञ्जलि दे दी है वे सभी विघ्नो पर विजय प्राप्त कर उत्तम समाधि मे निवास करते हैं।
१४० वही ऋषि है, वही मुनि है, वही सयत है, और वही भिक्षु है, जो शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करता है ।
१४१ जिसने एक ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना की हो, उसने सभी उत्तमोत्तम व्रतो की सम्यक् आराधना की है-ऐसा मानना चाहिए । अत कुशल साधक को ब्रह्मचर्य व्रत की पूर्णतया परिपालना करनी चाहिए ।
१४२ अब्रह्मचर्य लोक मे घोर प्रमादजनक और घृणा प्राप्त करानेवाला है। चारित्र भग के स्थान से बचनेवाले अब्रह्मचर्य का कदापि सेवन नही करते।
१४३ जो साधक ब्रह्मचर्य की साधना मे लीन है, उनके लिए स्त्रियो को राग-दृष्टि से न देखना, न अभिलाषा करना, न मन से उनका चिन्तन करना और न प्रशसा करना। ये सव सदा धर्म-ध्यान के लिये हितकर है।
१४४ जैसे प्रचुर ईंधन वाले वन मे लगी हुई तथा पवन के झोको से प्रेरित दावाग्नि शान्त नही होती, उसी प्रकार प्रकाम-भोगी-सरस एव अधिक परिमाण मे आहार करनेवाले की इन्द्रियाग्नि (कामाग्नि) शान्त नही होती । अत ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम-भोजन श्रेयस्कर नही होता ।