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धर्म और दर्शन ( भावना) ६३
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कितने ही प्राणी गर्भावस्था मे कितने ही दूध पीते शिशु अवस्था मे, तो कितने ही पच-शिख कुमारो की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होते हैं । फिर कितने ही युवा, प्रौढ और वृद्ध होकर मरते हैं । इस प्रकार आयुष्य क्षय होने पर जीव अपना देह छोड देता है ।
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अकेला ही भोगना पडता है, अथवा आयुष्यअकेला ही जाना होता है, अत विवेकी पुरुप
कष्ट आने पर जीव को क्षय होने से पर-भव मे स्वजन सम्वन्धी को शरणरूप नही समझता ।
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जैसे घर मे आग लग जाने पर गृहपति मूल्यवान वस्तुओ को निकाल लेता है और मूल्यहीन वस्तुओ को छोड देता है । उसी प्रकार मै भी आप की आज्ञा प्राप्त कर जरा और मृत्यु की अग्नि से प्रज्वलित इस ससार मे अपनी आत्मा का उद्धार करूंगा ।
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जीवन व्यतीत हो रहा है, रात्रियां दौडी जा रही है, मनुष्य के 'तुच्छ भोग भी अशाश्वत है । जैसे पक्षी क्षीण फलवाले वृक्ष को छोड कर चले जाते हैं, उसी तरह काम भोग मनुष्य को छोड देते हैं ।
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पाप कर्म के स्वरूप को जाननेवाला मेधावी पुरुष ससार मे रहता हुआ भी पाप से मुक्त हो जाता है । जो पुरुष नवीन कर्मों का उपार्जन नही करता उसके सभी पाप कर्म मुक्त हो जाते हैं ।
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अज्ञानी मनुष्य ऐसा मानता है कि धन, पशु और जातिवाले मेरा रक्षण करेंगे । वे "मेरे है" "मैं उनका हूँ" परन्तु इस प्रकार उन्हे अन्त मे त्राण तथा शरण देनेवाला कोई नही मिलता ।