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भावना
२३१
जिस साधक की अन्तरात्मा भावनायोग से विशुद्ध होती है, वह जल मे नौका के समान ससार सागर से तिर कर सर्व दुखो से मुक्त वन, परम सुख को प्राप्त करता है ।
२३२
वीतराग प्रभु ने जो-जो भाव कहे हैं वे वास्तव मे यथार्थ हैं । जिसका अन्तरात्मा सदा सत्य भावो से मोतप्रोत है वह समस्त जीवो के प्रति मैत्री भाव रखता है |
२३३
जन्मं दुख है, वुढापा दुख है, रोग दुख है, ओर मृत्यु दुख है । अहो 1 यह ससार ही दुखमय है, जिस मे जीव अनेकानेक क्लेश पा रहे है |
२३४
यह शरीर अनित्य है, और अशुचि है । अशुचि से ही इस की उत्पत्ति हुईहै | आत्मा का यह अशाश्वत - आवास गृह है । तथा दुख और क्लेशो का भाजन है ।
२३५
स्त्री, पुत्र, मित्र और वान्धव सब जीवित व्यक्ति के साथी है, मरने पर कोई भी साथ नही निभाता ।
२३६
यदि समस्त ससार तुम्हे प्राप्त हो जाय अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाय तब भी तुम्हारी इच्छापूर्ति के लिए वह अपर्याप्त ही होगा, और वह तुम्हे शरण भी नही दे सकेगा ।
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