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वीतराग-भाव
२७६
इन्द्रिय और मन के विषय रागात्मक मनुष्य के लिए ही दुख के हेतु वनते हैं, वीतराग के लिए वे किञ्चित् भी दुखदायी नही बन सकते ।
२८०
जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसो मे समान रहता है । वह वीतराग होता है ।
२८१
जो आत्मा विपयो से निरपेक्ष है वह ससार मे रहता हुआ भी जल मे कमलिनी पत्र के समान अलिप्त रहता है |
२८२
अग्नि- शिखा की तरह प्रदीप्त एव ज्योतिर्मय रहनेवाले अन्तर्द्रष्टा साधक के तप, प्रज्ञा और यश - निरन्तर अभिवृद्धि प्राप्त करते रहते है ।
२८३
अहकार रहित एव अनासक्तियोग से मुनि को राग-द्वेष के प्रस उपस्थित होने पर मध्यस्थ यात्रा करनी चाहिए ।
२८४
वीतराग-भाव से स्नेह के अनुबन्धनो और तृष्णा के अनुबन्धनो का विच्छेद हो जाता है ।
२८५
जो साधक कामनाओ पर विजय पा गये हैं वे वस्तुत मुक्त पुरुष हैं ।