________________
अपरिग्रह
१४६ वस्तु के प्रति रहे हुए ममत्व-भाव को परिग्रह कहा है।
प्रमत्त पुरुप धन के द्वारा न तो इस लोक मे अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक मे ही ।
१५१ विश्व के सभी प्राणियो के लिए परिग्रह के समान दूसरा कोई जाल नही, बन्धन नही।
१५२ इच्छा आकाश के समान अनन्त है ।
१५३ धन-धान्य, नौकर-चाकर आदि का परिग्रह त्यागना, सर्व हिंसात्मक प्रवृत्तियो को छोडना और निरपेक्षभाव से रहना, यह अत्यन्त दुष्कर है।
१५४ बहुत मिलने पर भी सग्रह न करे। परिग्रह-वृत्ति से अपने को दूर रखे ।
जब मनुष्य दैविक और मानुषिक (मनुष्य-सम्बन्धी) भोगो से विरक्त हो जाता है तब वह आभ्यन्तर और वाह्य परिग्रह को छोड कर आत्म-साधना मे जुट जाता है।