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आत्मानुशासन
इस स्थितिने पलटा खाया और धीरे-धीरे उपदेश देनेके अधिकारी केवल रत्नत्रयधारी मुनिजन न रहकर उनका स्थान भट्टारकोंने और गृहस्थोंने लेना प्रारम्भ कर दिया ।
समग्र जैन साहित्यके आलोडनसे पता चलता है कि लगभग ११वीं शताब्दिसे गृहस्थों द्वारा रचित साहित्यने जैन वाङ्मयमें अपना गौरवपूर्ण स्थान बनाना प्रारम्भ कर दिया था। भट्टारक परम्पराको मूर्तरूप भी लगभग इसी समयसे मिलना प्रारम्भ हो गया था। वर्तमानमें जो हम भोग रहे हैं यह आगमविरुद्ध ऐसे लेखन और वक्तृत्वका परिणाम है, जिसने आज मतभेदों तथा तर्क-कुतर्कोका अम्बार लगा दिया है। अब तो महिलाओंने भी दिगम्बर परंपरामें पूर्वकी मर्यादाको भुलाना प्रारम्भ कर दिया है । इसमें भी हम पुरुषोंका ही दोष है ।
३. उपदेश ग्रहण करने योग्य श्रोता जैसे आगममें मोक्षमार्गका अधिकारी वक्ता प्रायः रत्नत्रयधारी मुनि ही स्वीकार किया गया है वैसे ही धर्मकथा सुननेके लिये सावधान व्यक्तिको स्वीकार किया गया है, क्योंकि ऐसा ही व्यक्ति संसारसे भयभीत होकर श्रोताके रूपमें यथार्थ गुरुकी शरणको स्वीकार करता है । आगममें जैसे वक्ताको मर्यादा स्वीकार की गई है वैसे ही श्रोताकी भी मर्यादा स्वीकार की गई है। वर्तमानमें यद्यपि सभी वक्ता और श्रोता दोनोंमें ही विसंगतियाँ देखी जाती हैं, जो कालदोषसे अपरिहार्य है । ऐसा होते हए भी आगमकी मर्यादा क्या है वह हमारे ध्यानमें रहे, मात्र इतने प्रयोजनको ध्यानमें रखकर ही हमने संक्षेपमें यह खुलासा किया है ।
४. सम्यग्दर्शन और उसके भेद । आगे धर्मके स्वरूपपर प्रकाश डाल कर तथा उसकी प्राप्ति क्या करनेसे होती है यह दिखला कर धर्मके प्रथम सोपानके रूपमें सम्यग्दर्शनके भेदोंके कथनके मिससे सम्यग्दर्शनकी प्रधानरूपसे चर्चा की गई है।
परमार्थसे सम्यग्दर्शन स्वभावपर्याय है । जो आत्माका मूलरूपमें जैसा सहज स्वभाव है उसरूप ज्ञान परिणामके होनेपर होता है यह नियम है । तथा यथार्थ देव, शास्त्र, गुरु आदिकी श्रद्धा करना उसका व्यवहार है।
मूलमें सम्यग्दर्शन एक है। निमित्त भेदसे वह दो, तीन और दश प्रकारका कहा गया है (प० १०) । जो सम्यग्दर्शन वर्तमानमें परोपदेशपूर्वक होता है उसकी अधिगमज संज्ञा है। तथा जो वर्तमानमें परोपदेशके बिना होता है वह निसर्नज सम्यग्दर्शन है । यद्यपि प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन देशना
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