Book Title: Aspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 17
________________ सागरमल जैन लिखना पड़ रहा है कि पूज्य श्री सोहनलाल जी म० सा० के स्वर्गवास के पश्चात् इस दिशा में आगे कोई प्रगति न हो सकी। लालाजी का सामाजिक चिन्तन काफी व्यापक और उदार था । वे नितान्त परम्परावादी नहीं थे। वे लिखते हैं कि “यदि कोई व्यक्ति सामाजिक नियम के विरुद्ध किसी ऐसी स्त्री या पुरुष से सम्बन्ध जोड़ ले, जिसे समाज में महापाप समझा जाता है। वे प्रश्न करते हैं कि क्या यह पाप है ? क्या ऐसा करना नरकगामी होने के लिए पर्याय है ? सामान्य दृष्टि से यद्यपि ऐसा करना पाप समझा जाता है और इसे अनचित माना भी जाना चाहिए: फिर भी उनकी दष्टि में पाप और पुण्य की यह व्याख्या देश और काल सापेक्ष है । वे शास्त्रीय उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यौगलिक काल में भाईबहन परस्पर दाम्पत्य जीवन बिताते थे, किन्तु वे नरक न जाते थे और न उन्हें पापी ही माना जाता था। वस्तुतः उनकी दृष्टि में पाप-पुण्य का आधार कोई क्रिया या आचार का नियम विशेष नहीं था, अपितु व्यक्ति की दूषित या अदूषित मनोवृत्ति अथवा असंमय या संयम की भावना है।" __ वे आगे लिखते हैं कि-"संयम मनुष्य-जीवन का अटल और सर्वकालिक नियम है। अतः यदि मनुष्य संयम का पालन नहीं करता है, तो उसकी यह क्रिया पाप बन जाती है और यदि संयम का पालन करता है तो वही क्रिया पुण्य बन जाती है। वस्तुतः पुण्य और पाप मनुष्य की जीवन-दृष्टि पर निर्भर हैं। सामान्यतया समाज के नियमों के अनुसार कोई विवाहित युगल यदि विषय-वासनापूर्ण दाम्पत्य जीवन व्यतीत करता है तो उसे बुरा नहीं समझा जाता है। इसके विपरीत सामाजिक नियमों के प्रतिकूल यदि कोई युगल संयम-पूर्वक दाम्पत्य-जीवन बिताता है, तो उसे बुरा समझा जाता है। किन्तु विचार करना चाहिए कि सम्भोग की क्रिया तो दोनों में एक ही है और उसका फल भी एक ही है । अतः होना तो यह चाहिए कि जो वासनारत है, असंयमी है, उसे पापी माना जाय और जो संयमी है, उसे पुण्यात्मा माना जाय ।" वस्तुतः व्यावहारिक जीवन का मुख्य आधार सयम को कार्य रूप में परिणित करने के लिए है । संयम के लिए हो समाज, धर्म और विवाह की व्यवस्था हुई है। व्यावहारिक जीवन पूर्ण संयम तक पहुँचने के लिए रखा गया अंकुर है । अतः गृहस्थ जीवन में यदि पति-पत्नी में संयम है तो वे ब्रह्मचारी हैं और इसीलिए गृहस्थ जीवन में ऊँचे से ऊँचे उठने की सम्भावना बनी हुयी है। यह चरित्र के गठन का सम्यक् अवसर है और पूर्ण संयम को दिशा में बढ़ा हुआ एक कदम है। वस्तुतः व्यक्ति के जीवन को कोई नारकीय बनाता है, तो वह है-विलासिता, स्वार्थपरता एवं उद्दाम कामवासना, न कि पारिवारिक जीवन । पारिवारिक जीवन तो संयम की साधना का एक सुन्दर अवसर है। पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में लालाजी कितने सजग थे, इसका भी उदाहरण उनकी डायरी में मिल जाता है। वे लिखते हैं कि "कन्याओं से मेरी प्रार्थना है कि वे सयानी होकर गृहस्थ बनें, तो ससुराल की आर्थिक व्यवस्था बहुत अनुकूल न होने पर घबड़ायें नहीं, अपने पति से उलझे नहीं, अपने पति का मन से भी निरादर न करें, अपितु उसके प्रति श्रद्धा और प्रेम का भाव रखें । प्रेमपूर्वक उसे उत्साहित करें और आर्थिक उन्नति के मार्ग को सुगम बनायें। पति के संकोच, भय, निराशा और निरुत्साह को अपने प्रेममय व्यवहार से दूर करें। उसे न लज्जित करें और न दूसरों को उसे लज्जित करने दें। दूसरों के सामने उसको ढाल बनें । घर-बाहर प्रत्येक अवस्था में उसकी कमाई में स्वतन्त्रता और सन्तोष प्रदर्शित करें।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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