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जैन निर्वाण : परम्परा और परिवृत
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मोक्ष और निर्वाण : जैन परम्परा के सन्दर्भ में
जैन दर्शन के नव तत्त्वों में मोक्ष शब्द का ही प्रयोग मिलता है। समयसार के अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है : जीवाजीवा य पुण्णपावं य आसव संवर णिज्जर बन्धो मोक्खो' आचार्य शुभचन्द्र ने पाप-पुण्य को छोड़कर सात तत्त्वों की गणना इस प्रकार की है :
जीवाजीवास्रवाबन्धः संवरो निर्जरा तथा।
मोक्षश्चैतानि सप्तैव तत्त्वान्यूचुर्मनीषिणः ।। ३ ।। तत्त्वार्थसूत्र में मोक्ष का अर्थ है, "बन्ध के हेतुभूत कर्मों की निर्जरा होने पर उनका हेतु रूप में अभाव" अर्थात् उनसे मुक्ति-'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्न कर्मधिप्रमोक्षो मोक्षः । आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कर्मों के निराकृत होने पर उनके कलुष से निर्मल आत्मा की ज्ञानादि गुण तथा अव्यापाद्य की अवस्था को मोक्ष कहा है-निरविशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्याशरीरस्थात्मनोऽचिन्त्य स्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्यावाद्यसुखमात्यंतिकमवस्थान्तरं । न्यायवार्तिक में भी मोक्ष को आत्यन्तिक दुःख भाव कहा है अर्थात्, दुःखों से मुलतः मुक्ति । तर्कदीपिका में भी इसे दुःखध्वंसः" अर्थात् दुःख का अन्तिम रूप से मिटाना कहा गया है। न्यायसूत्र में "आत्यन्तिक दुःखनिवृति" अर्थात् मुल दुःख से निवृत्ति बताया गया है।
निर्वाण और मोक्ष शब्द परस्पर पर्यायवाची सन्दर्भो में प्रयुक्त किये गये हैं। निर्वाणवादी जैन परम्परा के सात या नौ तत्त्वों में निर्वाण का न होना तथा उसके स्थान पर मोक्ष का होना यही सूचित करता है। नव तत्त्व और आत्मा उत्तराध्ययनसूत्र में नौ तत्त्वों की विवेचना मिलती है :
जीवाजीवा य बन्धो य पुण्णं पावासवो तहा।
संवरो निजरा मोक्खो संते ए तहिया नव ॥ आस्रव की ही दो परिणतियाँ पाप और पुण्य हैं, अतः कुल मिलाकर सात ही तत्त्व बचते हैं। इसी कारण आचार्य शुभचन्द्र ने सात ही तत्त्व प्रतिपादित किये हैं। इनमें भी बन्ध, मोक्ष, संवर, निर्जरा, आस्रव आदि जीव और अजीव की ही स्थितियाँ मात्र हैं। अतः कुल मिलाकर तत्त्व दो ही ठहरते हैं-धर्मी व धर्म अर्थात् जीव और अजीव । श्लोकवार्तिक के अनुसार :
१. समयसार, पृ० १४-१५ गा० १५। २. तत्त्वार्थसूत्र, १०।२। ३. तीर्थकर वर्द्धमान महावीर : पद्मचन्द्र शास्त्री, १०८० । ४. भारतीय दर्शनों में मोक्ष चिन्तन : डा. अशोक कुमार लाड, पृ० ११७ । ५. वही पृ० ११७ । ६. न्यायसुत्र १।१।२ ( वात्स्यायन भाष्य)। ७. उत्तराध्ययनसूत्र २८।१४ ।
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