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दिगम्बर परम्परा
दिगम्बर परम्परा के अनुसार स्त्री को मोक्ष नहीं मिलती क्योंकि सावरण होने के कारण वह अचेल नहीं हो सकती' तथा सचेल चाहे तीर्थंकर भी क्यों न हो उसे मोक्ष नहीं मिल सकता" । ये दोनों ही बातें आचार्य कुन्दकुन्द ने कही है लेकिन जहाँ प्रथम प्रक्षेपक होने के कारण उतनी गंभीरता से नहीं लिया जा सकता वहीं दूसरी इतनी निर्णयात्मक है कि उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती । स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने ही समयसार में निश्चय नय से जहाँ अपने विचार रखे हैं, वहाँ वस्त्र ही नहीं, सम्पूर्ण उपकरणों और भोगों के सेवन तक को द्रव्य के स्तर पर निर्णायक मान्यता नहीं दी है। उन्होंने कहा है जैसे अरतिभाव मद्यपान करता हुआ भी कोई नशे में नहीं होता वैसे अरति भाव से द्रव्यों के भोग से भी ज्ञानी बद्ध नहीं होता । जैसे गारुड़ी विद्या के ज्ञाता पुरुष विष को खाते हुए भी मरण को प्राप्त नहीं होते वैसे ही ज्ञानी द्रव्य कर्मों को भोगते हुए भी उनसे बद्ध नहीं होते । कोई सेवन करते हुए भी नहीं करता है और कोई सेवन नहीं करते हुए भी करता है ।
ईश्वर दयाल
यही भूमिका इस संदर्भ में श्वेताम्बर आगमों की है कि भाव से वस्त्रादि उपकरणों द्वारा लिप्त नहीं होने के कारण द्रव्य के स्तर पर इनका सेवन बन्ध का हेतु नहीं रह सकता - संयम साधना व लज्जा की रक्षा के लिए ही इनका उपयोग होता है ।
जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुच्छणं ।
तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरति या || दशवैकालिक ६ |२०
उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार, जो भगवान् ने निर्वाण के पूर्व प्रज्ञप्त किया, सिद्ध स्त्री भी हो सकती है, पुरुष भी, नपुंसक भी, जिन मार्गानुयायी भी, आजीवक आदि अन्य मार्गानुयायी भी, गृहस्थ भी ।
इत्थी पुरिस सिद्धा य तहव य णवुंसगा |
सलिंगे अन्नलिंगे य गिहिलिगे तहेव य ॥ उत्तराध्ययन ३६ २४८
आत्मा का अपनी मूल स्थिति को प्राप्त होना निर्वाण है और उसमें वह न स्त्री है, न पुरुष, न अन्य कुछ - ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अन्नहा । यही अवधारणा भगवान् महावीर की भावना तथा व्यापक दृष्टि के अनुरूप भी है ।
१. प्रवचनसार २२५ की प्रक्षेपक गाथा ७ ।
२. सूत्रपाहुड – ३२ ।
३. जह मज्जं पिवमाणो अरदिभावे ण मज्जदे पुरिसो ।
द व भोगे अरदो णाण वि ण वज्झदि तहेव ।। समयसार - २०५ ।
४. जह विसमुंवभुज्जंता विज्जा पुरिसा ण मरणमुवयंति ।
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पोग्गल कम्म सुदयं तह भुंजदि णेव वज्झदे णाणी ।। समयसार - २०४ । ५. सेवतो वि ण सेवंति असेवमाणो वि सेवतो कोवि ।
पगरण चेट्ठा कस्सवि णय पायर णोत्ति सो होदि । समयसार - २०६ । ६. आचारांग – ५।५।१३४ ( आचार्यं तुलसी की वाचना ) |
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