Book Title: Aspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 142
________________ दशरूपक और नाट्यदर्पण में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति : एक तुलनात्मक विवेचन १२५ 'विभाव' आदि पदार्थ स्थानीय हैं और उनसे संसृष्ट 'रति' आदि स्थायीभाव वाक्यार्थ स्थानीय । अतः यह 'विभाव' आदि काव्य-वाक्य के पदार्थ और वाक्यार्थ ही हैं।' काव्यार्य के साथ सम्भेद के कारण आत्मानन्द से उत्पन्न स्वाद ही रस कहलाता है ।२ कवि काव्य-शब्दों के माध्यम से राम आदि के व्यक्तिगत वैशिष्ट्य का वर्णन नहीं करता, अपितु निजी विशेषताओं से रहित उनकी उदात्त आदि अवस्थाओं का कथन ही उसको अभिप्रेत होता है। अतः राम आदि सामान्य आश्रय मात्र होते हैं । भूतकालिक राम आदि से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता है, क्योंकि काव्य में अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं का परित्याग कर वह सामान्य रूप में ही उपस्थित होते हैं । कवि सामान्य आश्रय के रूप में इतिहास आदि को आधार बनाकर अपनी उर्वरा कल्पनाशक्ति से उनके भावों एवं कार्यों की उद्भावना कर चरित्र-चित्रण कर देता है । ___ 'रति' आदि भाव रसिक के चित्त में वासनारूप में स्थित होते हैं। राम एवं सीता आदि के रूप में काव्यगत विभाव आदि 'रति' आदि को भावित कर देते हैं और तब रसिक स्वगत स्थायीभाव आदि का ही रसके रूप में आस्वादन करता है । अतः धनञ्जय के अनुसार रस एवं काव्य में भाव्य-भावक सम्बन्ध होता है, वाङ्ग्य व्यञ्जकभाव सम्बन्ध नहीं। वह स्वयं रस-स्वरूप एवं प्रक्रिया का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि विभाव, सञ्चारो एवं अनुभाव नामक ग्रन्थ क्रमशः चन्द्रमा, निर्वद एवं रोमाञ्च आदि पदार्थों के द्वारा भावित स्थायीभाव ही 'रस' है और उसका ही रसिक के द्वारा आस्वादन किया जाता है । . धनञ्जय इस आस्वादन का स्पष्टीकरण लौकिक उदाहरण के द्वारा करते हैं। उनके अनुसार जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित निर्जीव हाथी आदि के साथ क्रोडारत बालक अपने ही 'उत्साह' का आस्वादन करता है, उसी प्रकार श्रोता आदि भी अर्जुन आदि पात्रों के माध्यम से स्वस्थ 'उत्साह' आदि स्थायी भाव का ही आस्वादन करता है। धनञ्जय के अनुसार आत्मानन्द से समुद्भूत रस की चार अवस्थाएँ होती हैं-चित्त का विकास, विस्तार, क्षोभ एवं विक्षेप । यह चित्त-विकास आदि क्रमशः शृङ्गार, वीर, बीभत्स एवं रौद्र रसों में होता है। यही अवस्थाएँ क्रमशः हास्य, अद्भुत, भयानक एवं करुण रसों में भी होती १. पूर्वोक्त पृ० ३३४-३३५ । २. स्वादः काव्यार्थ सम्भेदादात्मानन्दसमद्भवः । ४।४३ दश । ३. धीरोदात्ताद्यवस्थानां रामादिः प्रतिपादकः । विभावयतिरत्यादीन्स्वदन्तेरसिकस्य ते ॥ ता एव च परित्यक्तविशेषा रस हेतवः । ४।४०-४१, दश । ४ पदार्थ रिन्दुनिर्वेद रोमाञ्चादिस्वरूपकैः । काव्याद्विभावसञ्चार्यनुभाव प्रख्यतां गतः ।। भावितः स्वदते स्थायी रसः स परिकीर्तितः ॥ ४।४६,४७ पूर्वोक्त । ५. क्रीडतां मृन्मयैर्यद्वद् बालानां द्विरदादिभिः ॥ स्वोत्साहः स्वदते तद्वच्छ्रोतृणामर्जुनादिभिः । ४।४१-४२ पूर्वोक्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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