Book Title: Aspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 146
________________ दशरूपक और नाट्यदर्पण में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति : एक तुलनात्मक विवेचन १२९ भी आंगिक आदि चतुर्विध अभिनय के कारण मूल स्वरूप के आच्छादित हो जाने से तथाभूत-से अनुकर्ता में अनुकारी राम आदि का अध्यवसाय कर लेता है। इस अध्यवसाय के कारण ही वह राम आदि की सुख-दुःखात्मक अवस्थाओं में तन्मय हो जाता है।' कवि त्रिकालदर्शी ऋषियों के ज्ञान के द्वारा निश्चयपूर्वक राम आदि का नाटक आदि में निबन्धन करते हैं। मुनियों के प्रति विश्वास के कारण सामान्यजन कवि-निबन्धित उन चरित्रों में भी विश्वास कर लेते हैं। अतः प्रेक्षकों द्वारा कवि निबद्ध रूप में नट का दर्शन साक्षात् अनुकार्य राम आदि का दर्शन ही होता है। वस्तुतः वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में चर्म-चक्षओं से देखने वाले सामान्य जन तो भ्रान्त हो सकते हैं, ज्ञान-दशा ऋषि नहीं। इसलिये साक्षात दर्शन से भी अधिक जाने गये मुनि-ज्ञान द्वारा दृष्ट अर्थ का वास्तविक रूप में अनुकरण करने वाले नट का निराकरण करने में दुर्विदग्ध बुद्धि प्रेक्षक असमर्थ होते हैं। उन्होंने राम आदि को देखा हो अथवा न देखा हो, परन्तु नट में उन्हें रामादि का अध्यवसाय हो ही जाता है। इसके विपरीत रामादि की अवास्तविकता का ज्ञान होने पर वह रामादि की सुख-दुःख पूर्ण अवस्थाओं में तन्मय नहीं हो सकते हैं । नट में राम आदि का अध्यवसाय रूप भ्रान्ति से भी प्रेक्षक में शृङ्गार आदि रसों का उन्मेष होता है। क्योंकि स्वप्न में कामिनी, वैरी एवं चोर आदि को देखने वाले एवं रस के चर्मोत्कर्ष को प्राप्त पुरुष में भी स्तम्भ आदि अनुभाव देखे जाते हैं। अतः प्रेक्षक की रसानुभूति में इस तर्क को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । २ काव्य में वर्णित सीता के प्रति राम के शृङ्गार का नट द्वारा अनुकरण किये जाने पर सामाजिकों में सोता विषयक शृङ्गार का समुल्लास नहीं होता है। काव्य में सीता आदि के द्वारा अपने विशिष्ट स्वरूप का परित्याग कर दिये जाने के कारण सामाजिकों को यह रसास्वाद सामान्य स्त्री विषयक ही होता है। काव्य की यह प्रकृति लोक से सर्वथा भिन्न है। काव्य के सदृश लोक में भी यदि सीता आदि विभाव विद्यमान न हों तब भी एतद्विषयक स्मृति के आधार पर नियतविषयक रसास्वाद ही होता है, सामान्य विषयक नहीं । सामान्य रूप में होने वाला यह रसास्वाद परस्पर बाधक नहीं होता है । परस्पर तुलना और आलोचना :-धनञ्जय मूलतः रस-प्रक्रिया का व्याख्यान करते हैं और इसी प्रवाह में यत्र-तत्र प्रयुक्त शब्दों के माध्यम से अप्रत्यक्षरूपेण उनके रसस्वरूप विषयक दृष्टिकोण का भी किञ्चित् आभास हो जाता है। इसके विपरीत रामचन्द्र-गुणचन्द्र रस-स्वरूप एवं प्रक्रिया १. प्रेक्षकोऽपि रामादिशब्दसंकेत श्रवणादति हृदयसंगीतकाहितवैवश्याच्च स्वरूप-देश-कालभेदेन तथाभूतेष्व प्यभिनय चतुष्ठ्याच्छादनात् तथाभूतेष्विव नटेषु रामादीनाध्यवस्यति । अतएव तासु-तासु सुख-दुःखरूपासु रामाद्यवस्थासु तन्मयो भवति । पूर्वोक्त पृ० १६७ । २. विवृत्ति, ना० द० पृ० १६७-६८ । ३. न हि रामस्य सीतायां शृङ्गारेऽनुक्रियमाणे सामाजिकस्य सीताविषयः शृङ्गारः समुल्लसति, अपितु सामान्यस्त्रीविषयः । नियतविषयस्मरणादिना स्थायिनः प्रतिनियत विषयतायां तु प्रतिनियतविषय एव रसास्वादः । तथा परमार्थसतामभिनयकाव्यापितानां न विभावानां बहुसाधारणत्वाद् य एकस्य रसास्वादः सोऽन्याप्रतिक्षेपात्मेत्ययोगव्यवच्छेदेन, न पुनरन्ययोगं व्यवच्छेदेन । पूर्वोक्त पृ० १४३ । १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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