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दशरूपक और नाट्यदर्पण में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति : एक तुलनात्मक विवेचन १३९ लोकोत्तरता लोकगत रस से उसकी भिन्न प्रकृति का बोधमात्र कराती है तथापि उनकी यह लोकोत्तरता विषयक अवधारणा भी सर्वथा अग्राह्य है।
अब सामाजिक की रसानुभूति के सम्बन्ध में धनञ्जय और रामचन्द्र-गुणचन्द्र के विचारों को तुलनात्मक दृष्टि से देखें । दोनों के विचारों में अन्तर परिलक्षित होता है । रूपक रचना के समय राम आदि वास्तविक अनुकार्य के उपस्थित न होने पर भी ऋषितुल्य कवि अपने ज्ञान-चक्षुओं से उनके दर्शन कर काव्य में उनका उपनिबन्धन करता है। इस प्रकार कवि-कल्पना और काव्यनिर्माण में उनके महत्त्व को धनञ्जय और रामचन्द्र-गुणचन्द्र समानरूपेण स्वीकार करते हैं।
धनञ्जजय की मान्यता है कि कवि निबद्ध अनुकार्य वास्तविक अनुकार्य से भिन्न होते हैं क्योंकि काव्य में कवि व्यक्ति-विशेष का नहीं अपितु उनकी धीरोदात्त आदि अवस्थाओं का ही चित्रण करता है। व्यक्तिगत वैचित्र्य से रहित ये अवस्थाएँ ही सामाजिकस्थ 'रति' आदि को भावित कर उसके रसास्वाद में निमित्तभूत होती हैं।' धनञ्जय ने यद्यपि भट्टनायक के 'साधारणीकरण' शब्द का प्रयोग तो नहीं किया तथापि यहाँ वह अस्पष्टतः विभाव आदि के साधारणीकरण का ही कथन करते हैं। इसी प्रसङ्ग में यह भी ध्यातव्य है कि विभाव आदि के सदृश स्थायीभाव के साधारणीकरण का उल्लेख भट्टनायक के समान उन्होंने भी नहीं किया है। सम्भवतः धनञ्जय ने विभाव आदि के साधारणीकरण की अवस्था में स्थायीभाव के साधारणीकरण को सामान्य प्रक्रिया समझ कर अनिर्दिष्ट ही छोड़ दिया। डॉ० रामलखन शुक्ल के अनुसार विभाव आदि के साथ स्थायीभाव के साधारणीकरण की स्वीकृति अवश्य होनी चाहिए, अन्यथा रस किस आधार पर भाव्यमान होगा। काव्य-सौन्दर्य जब सामाजिक की चेतना को उत्तेजित कर देता है, उस समय काव्यनिहित भाव से सामाजिक का निजी भाव उबुद्ध हो जाता है और साधारणीभूत रूप में ही उसकी उद्बुद्धि होगी। सामाजिक के वासनारूप साधारणीभूत भाव की उबुद्धि ही रस के भावित होने में कारण होती है।२ भट्टनायक के प्रसङ्ग में उनके द्वारा अनुक्त होने पर भी स्थायीभाव के साधारणीकरण को स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में गोविन्द ठक्कुर और वामन झलकीकर ने भी निर्दिष्ट किया है।
रसानुभूति की इस प्रक्रिया में रामचन्द्र-गुणचन्द्र कहीं भी धनञ्जय के सदृश विभाव आदि के साधारणीकरण को स्पष्ट रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी दृष्टि में तो इसके मूल में अध्यवसाय का भाव ही सक्रिय है। इसके भी दो चरण हैं । प्रथम तो अनुकर्ता का मूल अनुकार्य के साथ अध्यवसाय होता है और द्वितीय प्रेक्षक का | अनुकर्ता के अध्यवसाय में उसके द्वारा कविनिबद्ध चरित्र का पुनः-पुनः अध्ययन, अभिनय विषयक अत्यन्त अभ्यास और साक्षात्दृष्ट से मूल अनुकार्य के अनुकरण की भावना इसमें सहायक होती है । प्रेक्षक के अध्यवसाय में वास्तविक अनुकार्य से सम्बद्ध
१. दश० ४।४०-४१ पूर्वा । २. साधारणीकरण : एक शास्त्रीय अध्ययन पृ० १४२-१४३ । ३. भावकत्त्वं साधारणीकरणम । तेन हि व्यापारेण विभावादयः स्थायी च साधारणी क्रियन्ते । पूर्वोक्त ग्रन्थ के
पृ० १४२ से उद्धृत । ४. अन्य सम्बन्धित्वेनासाधारणस्य विभावादेः स्थायिनश्च व्यक्तिविशेषांशपरिहारेणोपस्थापनं साधारणीकरणम्"
तदात्मना । भाव्यमानः साधारणी क्रियमाणः । बालबो० (का० प्र०-वामन झलकीकर) १० १०७ ।
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