Book Title: Aspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 132
________________ जैन निर्वाण : परम्परा और परिवृत ११५ "वह न तिक्त है न कटुक न कसैला, न खट्टा, न मीठा न कठोर, न कोमल, न भारी, न हल्का न स्निग्ध न रूखा"। ण काऊ "कोई शरीर नहीं है जिसका" ण रुहे "कभी जन्म नहीं होगा जिसका" ण संगे "स्पर्श नहीं कर सकता जिसको कोई" ण इत्थी ण पुरिसे, ण अन्नहा "वह न स्त्री है, न पुरुष, अन्य कुछ भी नहीं" परिणे सण्णे "वह ज्ञाता है, चेतन है" उवमा ण विजए "कोई उपमा नहीं है उसकी" अरूवी सत्ता "अरूपी सत्ता है" अपयस्स पयं णत्थि "उस निविशेष की कोई विशेषता नहीं कही जा सकती" __ यह है निर्वाण की परम स्थिति जो गुणातीत है, शब्दातीत है, अद्वैत है। द्वैत रूप गुणात्मक होते हैं। शरीर के पार, मन के पार रूप-गुणों की सत्ता नहीं रहती। अतः द्वैत की सत्ता भी नहीं रहती। उसे शून्य कहें या सर्व, दोनों मात्र दो शब्द हैं। महाप्राण निराला ने लिखा है-"शून्य को ही सब कुछ कहें या कुछ भी नहीं, दोनों एक ही चीज है" ( शून्य और शक्ति ) लोक-अलोक की सारी सीमाएँ उस ज्ञाता की परम सत्ता के समक्ष अदृश्य हो जाती हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा है : आदा णाण पमाणं णाणं णेय णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।। ज्ञाता ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, तथा ज्ञेय है लोकालोक प्रमाण । अतः सर्वगत है ज्ञान, सर्वगत है ज्ञाता-आत्मा अपनी शुद्ध-बुद्ध सत्ता में। महावीर के शब्दों में आत्मा एक है-एगे आया। इस एक को जो जानता है वह सब को जानता है-जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ । यही वेदान्त, बौद्ध, ताओ, कनफ्यूसियस, ईसाई, जरथुस्त्र-दर्शन का मन्तव्य है। भेद हैं तो शब्दों के, जो देशकाल व परम्परा-सापेक्ष होते हैं। लेकिन अभेद है सत्य, एक है सत्य, भगवान् है सत्य-सच्चं भगवं । सर्वोदय महाविद्यालय पत्रा०-गंध भड़सरा रोहतास, विहार-८०२२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170