Book Title: Aspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 125
________________ १०८ ईश्वर दयाल * "वाण" का अर्थ है "बुनना' । निर अर्थात् नहीं । अतः निर्वाण सभी प्रकार के दुःख देने वाले कर्म रूपी धागे से, जो जन्म मरण का ताना-बाना बुनते हैं, पूर्णतः मुक्ति है'।" कुल मिलाकर बौद्धों की निर्वाण परिकल्पना एक नकारात्मक स्थिति की व्यंजक है, विनाश मूलक है यद्यपि इसका अर्थ लाक्षणिक ही प्रतीत होता है, अभिधात्मक नहीं। राइस डेविड्स के शब्दों में “निर्वाण पापशून्य मन की शान्त स्थिति है और उसे हम श्रेष्ठ रूप से दिव्य ज्योति, अन्तदृष्टि, सत्य और मुक्तिदाता, पराज्ञान, सुख, शान्ति, शीतलता, सन्तोष, शुभ, सुरक्षा, स्वातन्त्र्य, स्वशासन, सर्वोच्च सुअवसर, पवित्रता, पूर्ण शान्ति, शुभत्व और प्रज्ञा आदि शब्दों में व्यक्त कर सकते हैं । सर्वपल्ली डा० राधाकृष्णन के अनुसार बुद्ध का आशय केवल मिथ्या इच्छा का विनाश करना था, जीवन मात्र का विनाश करना नहीं। काम-वासना, घृणा एवं अज्ञान के नाश का नाम ही निर्वाण है। निर्वाण : जैन व्याख्या ___ जैन परम्परा में निर्वाण की विनाश मूलक व्याख्या भी मिलती है। भगवतीआराधना में निर्वाण का अर्थ है विनाश-जैसे दीपक का बुझ जाना । लेकिन लाक्षणिक सन्दर्भ में ही यह बात लागू होती है अर्थात् कर्मों का सम्पूर्ण विनाश । “निर्वाणं विनाशः तथा प्रयोगः प्रदीपो नष्ट इति यावत् विनाशसामान्यमुपादाय वर्तमानोऽपि निर्वाणशब्दः चरणशब्दस्य निर्वातकर्मशात्"। अभिधानचिन्तामणिकोश में भी निर्वाण का इसी प्रकार अर्थ दिया गया है-"निर्वातस्तु गतेवाते निर्वाण: पावकादिषुः५" अमरकोष में भी इसकी व्याख्या बुझ जाने के अर्थ में ही मिलती है । बौद्धों के ही समानान्तर जैन-परम्परा ने इसका अर्थ कर्म-वाणों से मुक्त होने के रूप में भी की है। जैन परम्परा के अनुसार भो निर्वाण कर्मों का, उनसे सम्भूत दुःखों का, जन्म-जन्मान्तर की परम्परा का ही उच्छेद है, जीव-सत्ता का नहीं। निर्वाण के "अभिधानचिन्तामणि" में प्रस्तुत पर्यायवाची शब्द इसो सत्य के संसूचक हैं : महानन्दोऽमृतं सिद्धि कैवल्यमपुनर्भवः ।। शिवं निःश्रेयसं श्रेयो निर्वाणं ब्रह्म निर्वृतिः ।। महोदय सर्वदुःखक्षयो निर्याणमक्षरम् मुक्ति मोक्षोऽपवर्गऽथ १. Systems of Buddhistic Thoughts : Sogeu-Page 34-42 । २. A History of Indian Philosophy : J. N. Sinha Vol. II P. 330 । ३. भारतीय दर्शन : डा० राधाकृष्णन्, भाग-२, पृ० ४११-१२ । ४. भगवतीआराधना १११५३।२० । ५. अ० चि० ६।१४८४ । ६. भारतीय दर्शनों में मोक्ष चिन्तन-डा० अशोक कुमार लाड, पृ० ६४ । ७. तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर : पद्मचन्द्र शास्त्री, पृ० १०४ । ८. अभिधानचिन्तामणि, काण्ड-१, श्लोक-७४-७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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