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अप्रकाशित प्राकृत शतकत्रय-एक परिचय
गाथा-२
इंदीरूप चवल तुरंगम दुर्गति मार्ग
नइ घावत उथइ सदा । स्वभाविउ संसारस्वरूप रुंघइ
श्रीवीतरागना वचन मारगवोरोइ ।। गाथा-३
इंदिय धूरत नइ अहो उत्तम तिलवाकू कसमात्र देसिमा ।
पसरवा जउ दीयउ तउ लीघउ जहाँ एक क्षण वरसनी कोडि सरीखो दुखमय । इस इन्द्रियविजयशतक में कामभोगों के दुष्परिणामों का वर्णन किया गया है। प्रसंगवश नारी को दुःखों की खान कहा गया है। जीवों को इतना मूढ़ और अज्ञानी कहा गया है कि वे विषयभोगों के जाल में जानते हुए भी फंस जाते हैं। क्योंकि उन्हें अपने स्वरूप का पता नहीं है। जो स्वाभिमानी व्यक्ति मृत्यु के आने पर भी कभी दीन वचन नहीं बोलते हैं, वे भी नारी के प्रेमजाल में फैसकर उसकी चाटुकारिता करते हैं । यथा
मरणे वि दीणवचणं माणधरा जे णरा ण जंपंति ।
ते वि हु कुणंति लल्लिं बालाणं-नेह-गहिल्ला ॥ ६८ ॥ इतिहास का एक उदाहरण देते हुए कवि कहता है कि यादववंश के पुत्र, महान् आत्मा, जिनेन्द्र नेमिनाथ के भाई, महाव्रतधारी, चरमशरीरी रथनेमि भी राजमति से विषयों की आकांक्षा करने लगते हैं। जब उस जैसा मेरुपर्वत सदश निश्चल यति भी कामरूपी पवन से चंचल हो उठा तब पके हुए पत्तों की तरह सामान्य अन्य जीवों की गति क्या कही जाय
जउनंदणो महप्पा जिणभाय वयधरो चरमदेहो। रहणेमि रायमई, रायमई कासिही विसया ।। ७० ॥ मयणपवणेण जइं तारिसो वि सुरसेलनिच्चला चलिया।
ता पक्कपत्तसत्ता णइय सत्ताण का वत्ता ।। ७१ ।। ___ इसीलिए विषय-कामभोगों से मन को विरक्त कर जिनभाव में अभ्यास करना चाहिये । ऐसे संयमधारी योगियों का दास बनना भी श्रेयस्कर है। २-वैराग्य शतक
नीति और अध्यात्म विषयक प्राकृत रचनाओं में वैराग्य शतक नामक रचना बहुत प्रचलित रही है। यद्यपि इसका कर्ता अभी तक अज्ञात है। इसका दूसरा नाम 'भव-वैराग्यशतक' भी प्राप्त होता है। यह रचना संस्कृतवृति एवं गुजराती अनुवाद सहित ३-४ बार प्रकाशित हो चुकी है।'
१. (क) कचरभाई गोपालदास, अहमदाबाद, सन १८९५ ।
(ख) होरालाल हंसराज जामनगर, १९१४ । (ग) देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला, १९४१ । (घ) स्याद्वाद संस्कृत पाठशाला, खंभात, १९४८ ।
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