Book Title: Aspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 114
________________ अप्रकाशित प्राकृत शतकत्रय-एक परिचय ९७ प्राप्त प्राकृत का यह आदिनाथशतक नया हो सकता है। इस आदिनाथशतक की प्राकृत गाथाओं के ऊपर हिन्दी टिप्पण भी नहीं दिये गये हैं। इसका नाम आदिनाथशतक क्यों दिया गया है, यह पि को पढ़ने से ज्ञात नहीं होता। क्योंकि इसमें आदिनाथ के जीवन की कोई घटना नहीं है। जैन धर्म का प्रवर्तक होने के नाते आदिनाथ का नाम शायद इसलिये दिया गया है कि इस शतक में जो कहा गया है वह भी जैन-धर्म का मूल उपदेश ही है। इस शतक में मनुष्य जन्म की दुर्लभता, कर्मों की प्रबलता एवं संसार की विचित्रता का वर्णन है । अशरण भावना को जानकर शीघ्र धर्म करने की बात इसमें कही गयी है असरण मरंति इंदा-बलदेव-वासुदेव-चक्कहरा । ता एअं नाऊणं करेहि धम्मु तुरियं ।। २१ ।। मनुष्य जन्म प्राप्त कर लेने पर भी धर्मबोधि का लाभ सभी को नहीं हो पाता है। कवि कहता है कि ७२ कलाओं में निपुण व्यक्ति भी स्वर्ण और रत्न को तो कसौटी में कसकर पहचान लेगा, किन्तु धर्म को कसौटी में कसने में वह व्यक्ति भी चूक जाता है । यथा वावत्तरिकला कुसला कसणाए कणयरयणाए । चुक्कंति धम्मकसणा तेसिं वि धम्मुत्तिदुन्नेउ ।। ७७॥ कवि की मान्यता है कि धर्म से ही व्यक्ति, ९ निधियों का स्वामी, १४ रत्नों का अधिपति एवं भारत के छह खण्डों का स्वामी चक्रवर्ती राजा होता है। सामान्य उपलब्धियों का कहना ही क्या ? इस ग्रन्थ की कुछ गाथाओं के परिचय के लिये आदि एवं अन्त की गाथाएँ यहाँ दी जा रही हैं। ___ अथ श्री आदिनाथ जी शतकमारंभः आदि अंश संसारे नत्थि सुहं जम्म-जरामरणरोग-सोगेहिं । तह बिहु मिच्छंध जीवा ण कुणंति जिणंदवरधम्मं ॥ १ ॥ माई जाल सरिसं विज्जाचमक्कारसच्छहं सव्वं । सामण्णं खण-दि₹ खणण₹ कापडिवच्छो ॥ २॥ को कस्स इच्छ सयणे को व परो भवसमुद्द-भवणम्मि। मच्छ्व्व भमंति जीआ मिलंति पुण जंपि दूरं ॥ ३ ॥ अंतिम अंश आरोगरूव-धण-सयण-संपया दीहमाउसोहग्ग । सग्गापवग्गगमं णं होइ विणणेण धम्मेणं ।। ८३ ।। जत्थ न जरा ण मच्चू वाहिं ण न च सव्वदुक्खाई। सय सुक्खंमि वि जीवो वसइ तहिं सव्व-कालंमि ।। ८४ ॥ अरयव्व तुंबलग्गाणो भमंति संसार-कंतारे सम्मतजीवा । णरय तिरिआ नहुंति कयावि सुहमाणुसदेवेहि उपज्जिता सिवं जंति ।। ८५॥ ॥ इति शतक त्रिकं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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