________________
डॉ० सागरमल जैन
(३) सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही धर्म है; और
(४) जीवों की रक्षा करना ही धर्म है। यदि हम इन परिभाषाओं के सन्दर्भ को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक होना और नैतिक होना यह दो अलग-अलग तथ्य नहीं हैं। धर्म नैतिकता की आधारभूमि है और नैतिकता धर्म की बाह्य अभिव्यक्ति । धर्म नैतिकता की आत्मा है और नैतिकता धर्म का शरीर । अतः जैन विचारक धार्मिक और नैतिक कर्तव्यता के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींचते हैं । उनके अनुसार आन्तरिक निष्ठापूर्वक सदाचार का पालन करना अर्थात् नैतिक दायित्वों या कर्तव्यों का पालन करना ही धार्मिक होना है। जैन धर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का व्यावहारिक पक्ष
जैन धर्म में हम नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता में कोई विभाजक रेखा खींचना चाहें तो उसे सामाजिक कर्तव्यता और वैयक्तिक कर्तव्यता के आधार पर ही खींचा जा सकता है। हमारे कर्तव्य और दायित्व दो प्रकार के होते हैं, एक जो दूसरों के प्रति है, और दूसरे जो अपने प्रति है। जो दूसरों अर्थात् समाज के प्रति हमारे दायित्व हैं वे नैतिकता की परिसीमा में आते हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के व्रतों का बाह्य या व्यवहार पक्ष है। उसका पालन नैतिक कर्तव्यता है, जबकि समभाव, द्रष्टाभाव या साक्षीभाव जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'सामायिक' कहा गया है, की साधना धामिक कर्तव्यता है। जैन धर्म में आचार के और पूजा-उपासना की जो दूसरी प्रक्रियाएँ हैं उनका महत्त्व या मूल्य इसी बात में है कि समभाव जो हमारा सहज स्वभाव की उपलब्धि में किस सीमा तक सहायक है। यदि, हमें जैन धर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता को अति संक्षेप में कहना हो तो उन्हें क्रमशः “अहिंसा" और 'समता" के रूप में कहा जा सकता है, उसमें अहिंसा सामाजिक या नैतिक कर्तव्यता की सूचक है और समता ( सामायिक ) धार्मिक कर्तव्यता की सूचक है।
निदेशक, पा० वि० शोध संस्थान
वाराणसी-५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org