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जैनधर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का स्वरूप
नैतिक नियमों को ईश्वरीय आदेश से प्रतिफलित मानते हैं और इस अर्थ में वे धर्म को नैतिकता से प्राथमिक मानते हैं जबकि कॉण्ट, मार्टिन्यू आदि नैतिकता पर धर्म को अधिष्ठित करते हैं। कॉण्ट के अनुसार धर्म, नैतिकता पर आधारित है और ईश्वर का अस्तित्व नैतिकता के अस्तित्व के कारण है। जहाँ तक भारतीय चिन्तन और विशेष रूप से जैन परम्परा का प्रश्न है वे धर्म और नैतिकता को एक दूसरे से पृथक् नहीं करते हैं। आचारो प्रथमोधर्मः के रूप में नीति की प्रतिष्ठा धर्म के साथ जुड़ी हुई है। जैन दर्शन की भाषा में कहें तो दोनों अन्योन्याश्रित हैं। सम्यग्चारित्र का आधार सम्यग्दर्शन है और सम्यग्चारित्र सम्यग्दर्शन भी नहीं होता है। सदाचरण के बिना सम्यक श्रद्धा और सम्यक श्रद्धा के बिना सदाचरण सम्भव नहीं है। धर्म न तो नैतिकताविहीन है और न तो नैतिकता धर्मविहीन । ब्रैडले के शब्दों में यह असम्भव है कि एक व्यक्ति धार्मिक होते हुए अनैतिक आचरण करे । ऐसी स्थिति में या तो वह धर्म का ढोंग कर रहा है या उसका धर्म ही मिथ्या है। कुछ लोग धर्म और नैतिकता का अन्तर इस आधार पर करते हैं कि नैतिकता का क्षेत्र शुभाशुभ का क्षेत्र है। जहाँ तक शुभ और अशुभ का संघर्ष है वहाँ तक नैतिकता का क्षेत्र है। धर्म के क्षेत्र में शुभ और अशुभ का द्वन्द्व समाप्त हो जाता है। क्योंकि धार्मिक तभी हुआ जा सकता है, जबकि व्यक्ति अशुभ से पूर्णतया विरत हो जाये और जब अशुभ नहीं रहता तो शुभ भी नहीं रहता । जैन दार्शनिकों में आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य (शुभ) और पाप (अशुभ) दोनों से ऊपर उठने का निर्दश दिया था। यद्यपि, हमें यह स्मरण रखना होगा कि अशुभ से निवर्तन के लिए प्रथम शुभ की साधना आवश्यक है। धर्म का क्षेत्र पुण्य-पाप के अतिक्रमण का क्षेत्र है; अतः वह नैतिकता से ऊपर है, फिर भी हमें . यह मानना होगा कि धार्मिक होने के लिए जिन कर्तव्यों का विधान किया गया है वे स्वरूपतः नैतिक हो हैं। जैन धर्म के पाँच व्रतों, बौद्ध धर्म के पंचशीलों और योग दर्शन के पंचयमों का सीमाक्षेत्र नैतिकता का सीमा-क्षेत्र ही है। भारतीय परम्परा में धार्मिक होने के लिए नैतिक होना आवश्यक है। इस प्रकार आचरण की दृष्टि से नैतिक-कर्तव्यता प्राथमिक है और धार्मिक कर्तव्यता परवर्ती है। यद्यपि, नैतिक और धार्मिक दोनों ही प्रकार के कर्तव्यों की बाध्यता का उद्भव कर्म के नियम से होता है, अतः इन कर्तव्यों की बाध्यता का उद्भव मूलतः धार्मिक ही है ।
__ कछ पाश्चात्य विचारकों की यह मान्यता है कि बिना धार्मिक कर्तव्यों का पालन किये भी व्यक्ति सदाचारी हो सकता है । सदाचारी जीवन के लिए धार्मिकता अनिवार्य तत्त्व नहीं है। आज साम्यवादी देशों में इसो धर्मविहीन नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। यदि धर्म का अर्थ किसी वैयक्तिक ईश्वर के प्रति आस्था या पूजा के क्रिया-काण्डों तक सीमित है, तब तो यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति धार्मिक हुए बिना भी नैतिक हो सकता है। किन्तु, जब धार्मिकता का अर्थ ही सदाचारिता हो तो फिर यह सम्भव नहीं है कि बिना सदाचारी हुए कोई व्यक्ति धार्मिक हो जाये। जैन दर्शन हमें धर्म की जो व्याख्या देता है वह न तो किसी वैयक्तिक ईश्वर के प्रति आस्था की बात कहता है और न धर्म की कुछ क्रिया-काण्डों तक सीमित रखता है। उसने धर्म की परिभाषा करते हुए चार दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं
(१) वस्तु का स्वभाव धर्म है; (२) क्षमा आदि सद्गुणों का आचरण धर्म है;
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