Book Title: Aspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 94
________________ जैन आगमों में निहित गणितीय अध्ययन के विषय ७७ १. अंक गणित के परिकर्म ( Fundamental Operation ) २. अंक गणित के व्यवहार ( Subject of Treatment ) ३. रेखागणित ( Geometry ) ४. राशियों का आयतन आदि निकालना ( Mensuration of Solid bodies ) ५. भिन्न ( Fraction ) ६. सरल समीकरण ( Simple Equation ) ७. वर्ग समीकरण (Quadratic Equation ) ८. घन समीकरण ( Cubic Equation ) ९. चतुर्थ घात समोरण ( Biquadratic Equation ) १०. विकल्प गणित या क्रमचय-संचय ( Combination & Permutation ) दत्त द्वारा विषय की व्यापक रूप से समीक्षा किये जाने के उपरांत सर्वप्रथम कापड़िया ( १९३७) ने इस विषय का स्पर्श किया किन्तु निर्णय हेतु अतिरिक्त सामग्री प्राचीन जैन गणितीय ग्रन्थों आदि के अभाव में आपने अपना निर्णय सुरक्षित रखा । आपने लिखा कि :. It is extremely difficult to reconcile these two views especially when we have at present neither any acess to a commentary prior to the one mentioned above nor to any mathematical works of Jaina authorship which is earlier to Ganita Sāra Samgraha. So under these circumstances I shall be excused if I reserve this matter for further research.' आयंगर ( १९६७)२ उपाध्याय ( १९७१ )३ अग्रवाल ( १९७२ )४ जैन ( लक्ष्मीचंद) ( १९८०) ने अपनी कृतियों/लेखों में इस विषय का ऊहापोह किया है। स्थानांगसूत्र के विगत २-३ दशकों में प्रकाशित अनेक सटीक संस्करणों में अभयदेवसूरि की ही मान्यता का पोषण किया गया है । जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित संस्करण में ३ पृष्ठीय विस्तृत परिशिष्ट में इस विषय की विवेचना की गई है किन्तु वह भी परंपरानुरूप ही है । हम यहाँ क्रमिक रूप से परिकर्म, व्यवहार आदि शब्दों की अद्यावधि प्रकाशित व्याख्याओं की समीक्षा कर निष्कर्ष निकालने का प्रयास करेंगे। परिकम्म (सं० परिकर्म) परिक्रियते अस्मित इति परिकर्मः । अर्थात् जिसमें गणित की मूल क्रिया सम्पन्न की जाये उसे परिकर्म कहते हैं। परिकर्म शब्द जैन वाङ्मय के लिये नया नहीं है। अंग साहित्य के अन्तर्गत दृष्टिवाद अंग ( १२वां अंग ) का एक भेद परिकर्म है। आ० कन्दकुन्द (द्वितीय-तृतीय शती ई०) १. देखें सं० १०, पृ०१३ । २. देखें सं०-१३, पृ० २५-२७ । ३. देखें सं०-११, पृ० २६ । ४. देखें सं०-१, पृ० ३०-५७ । ५. देखें सं०-८, पृ० ३७-४१, ४२ । ६. देखें सं०-१, पृ० ३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170