Book Title: Ashtsahastri Part 1 Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh SansthanPage 15
________________ परम पूज्य तपोनिधि पट्टाधीश १०८ आचार्य श्री धर्म सागर जी महाराज का शुभाशीर्वाद * शिक्षा प्रधान वर्तमान युग में लौकिक अध्ययन के साथ-साथ धार्मिक पठन-पाठन भी बढ़ा है । जहाँ पाश्चात्य भाषा सर्वाधिक प्रचलन में आई है वहाँ संस्कृत-प्राकृत भाषा के ज्ञान में अधिक ह्रास हुआ है । हमारे अधिकांश प्राचीन ग्रंथ संस्कृत प्राकृत भाषा में लिखे हुये हैं। अनेक विद्वानों ने समय-समय पर बहुत से ग्रंथों का सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद करके जिनागम के मर्म को समझने में सर्वसाधारण को सुलभता प्रदान की है जिसके लिये सभी स्वाध्यायी उनके इस महान् उपकार से उपकृत हैं।। कुछ वर्षों पूर्व तक तो न्याय ग्रन्थों को पढ़ाने व पढ़ने वाले विशेष संख्या में थे किन्तु अब अत्यल्प मात्रा में रह गया है । वर्तमान में जैन समाज में तो न्याय ग्रंथों के स्वाध्याय की प्रथा उठ सी गई है । द्रव्यानुयोग के आध्यात्मिक ग्रन्थों को समझने एवं हृदयंगम करने के लिये भी न्याय दर्शन का ज्ञान होना आवश्यक है। वस्तुत्व का सच्चा एवं दृढ़ निश्चय न्याय की कसौटी पर कसकर ही किया जा सकता है। न्याय के कतिपय ग्रंथों का हिन्दी भाषानुवाद तो हो चुका है किन्तु विशिष्ट ग्रंथ अष्टसहस्री का क्लिष्टता के कारण अनुवाद नहीं हो पाया था। प्रसन्नता है कि उस कमी की पूर्ति भी आर्यिका श्री ज्ञानमती जी द्वारा हो गई है। इस अनन्य कार्य के लिये हमारा शुभ आशीर्वाद हैं। ___आशा है, विद्वद्वन्द इसी प्रकार से अन्य आर्ष प्रणीत प्राचीन ग्रंथों के अनुवाद में भी पूर्ण रुचि रखकर जिनवाणी की सेवा में अग्रसर रहेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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