Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 203
________________ बनना है उसका लक्ष्य तो येन-केन-प्रकारेण डिग्री प्राप्त कर महाविद्यालयों तथा विविध तकनीकी पाठ्यक्रमों की कर दी गई आजीविका से जोड़ा जा रहा है। महाविद्यालयों में मुश्किल से है कि सामान्य परिवार के बच्चों के लिए ऐसी शिक्षा ग्रहण करना प्रतिदिन ३-४ घण्टे का अध्ययन होता है और उसमें हम कल्पना अब सहज नहीं रहा है। करें कि विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनेगा तो हमारी ये समाज में आज भी ऐसे शिक्षा प्रेमी और उदारमना व्यक्ति कल्पना मात्र कल्पना ही है यथार्थ नहीं। परीक्षा पूर्व प्रश्न-पत्रों का मौजद हैं जो अपने पुरुषार्थ से अर्जित सम्पत्ति का विनियोजन बाजार में आ जाना, बिना योग्यता और विषय का ज्ञान प्राप्त बच्चों को उच्च शिक्षा और नैतिक शिक्षा देने पर करना चाहते किये ही शिक्षकों को रुपये देकर परीक्षा उत्तीर्ण कर लेना, रुपये हैं। आवश्यकता इस बात है कि हम वर्तमान विकृत शिक्षा पद्धति देकर पीएच.डी के शोध प्रबन्ध तक लिखवाना, यह सब शिक्षा से परे एक सुसंस्कारित और चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा का विकृत स्वरूप है जो वर्तमान में रक्तबीज की तरह बढ़ रहा पद्धति को विकसित करें और तदनुरूप शिक्षण संस्थानों की है। हम सब इससे भलीभांति परिचित हैं। होना तो यह चाहिए कि स्थापना करें। महाविद्यालय स्तर की शिक्षा अर्जित करने के पश्चात् विद्यार्थी प्रतिभा पलायन की समस्या : के चेहरे से ही छलकना चाहिए कि वह कितना ज्ञानवान और क्रियावान है किन्तु आज ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। अत: हमें हमारे देश में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। हम अपने शिक्षा के वर्तमान स्वरूप के साथ नैतिक शिक्षा को जोड़ने का चहुंओर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि हमारे कई प्रतिभावान उपक्रम अवश्य करना चाहिए। विद्यार्थी जो आज यहाँ शिक्षा के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किये हुए है, विदेशों में उनकी योग्यता की परख करते हुए तुरन्त ही शिक्षा का व्यवसायीकरण : उन्हें मोटी रकम देकर अपने यहां सेवा देने हेतु नियुक्त कर प्राचीन समय में शिक्षा कभी भी आय का स्रोत नहीं रही। लिया जाता है इस प्रकार प्रतिभा पलायन को रोकना हमारे लिये शिक्षण संस्थानों की स्थापना चाहे किसी व्यक्ति ने की, किसी अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है समाज ने की अथवा शासन की ओर से की गई हो, सभी उसमें कि उन प्रतिभाओं को उनकी प्रतिभा के अनुरूप कार्य करने का शैक्षणिक गतिविधियों के लिए धन का व्यय करते थे। धनाढ्य तिविधिया के लिए धन का व्यय करते थ। धनाढ्य समुचित अवसर यहां अपने देश में दें। यदि ऐसा होता है तो व्यक्ति अथवा सम्पन्न समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के हमारी प्रतिभाओं के माध्यम से निर्मित तकनीकी जिसको हम पश्चात् रचनात्मक कार्यों में धन खर्च करने के लिए शिक्षा दान विदेशों से आयातित करते हैं वह नहीं करनी पडेगी और हम को उचित माध्यम मानते थे और इसी कारण जगह-जगह स्कूलों, अपनी ही प्रतिभाओं से तकनीकी क्षेत्र में भी गुणवत्ता के मापदण्ड महाविद्यालयों, धार्मिक पाठशालाओं, विविध शोध संस्थानों आदि मिक पाठशालाओं, विविध शोध संस्थानों आदि प्राप्त कर देश की समृद्धि और विकास में सहयोगी बन सकेंगे। की स्थापना उनके द्वारा की जाती थी और बिना अर्थ लाभ के प्राचीन समय में व्यक्ति आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा हमेशा अपनी ओर से कुछ न कुछ धन उसमें विनियोजित करने ग्रहण करता था और वह शिक्षा उसे अपने धर्माचार्य से बिना कुछ की ही उनकी भावना रहती थी। शासन के आय के स्रोत अन्य धन व्यय किये सहज ही प्राप्त हो जाती थी किन्तु वर्तमान थे किन्तु शिक्षा कभी भी शासन की आय का स्रोत नहीं थी, व्यावहारिक शिक्षा जिसका सीधा संबंध व्यक्ति को रोजगार वर्तमान में परिस्थितियाँ सर्वथा इसके प्रतिकूल दिखाई देती हैं। दिलाने से है बिना धन के व्यय किये प्राप्त नहीं हो सकती। आज पहले उदारमना दानी महानुभाव शिक्षण संस्थानों की स्थापना गुरु और शिष्य के बीच जो सम्बन्ध हैं उसमें आदर का भाव करते थे आज उद्योगपति शिक्षण संस्थानों की स्थापना कर रहे प्राय: लुप्त हो चुका है क्योंकि इन दोनों के बीच पढ़ने और पढ़ाने हैं। पूंजीपतियों को आज शिक्षा सबसे बड़ा उद्योग दिखाई दे रहा के लिए राशि को लेकर सौदेबाजी होती है और जहाँ राशि को है। वे अल्प समय में जितनी धन सम्पदा अन्य उद्योगों से अर्जित लेकर सौदेबाजी होती हो वहां कोई गुरु यह अपेक्षा करे कि नहीं कर सकते उससे अधिक धन-सम्पदा अर्जित करने का शिष्य मुझे आदर और सम्मान देगा तो यह उसकी भूल है क्योंकि माध्यम उन्होंने शिक्षा संस्थानों की स्थापना कर उद्योग के रूप में गुरु को आदर और सम्मान उस काल में दिया जाता था जब उसका संचालन कर सम्पत्ति अर्जन करना बना रखा है। गुरुकुल पद्धति थी। विद्यार्थी आश्रम में रहकर अपने गुरु से शासन द्वारा भी पूर्व में शिक्षा, चिकित्सा आदि पर धन निःशुल्क शिक्षा अर्जित करता था। वर्तमान में गुरु-शिष्य व्यय किया जाता था किन्तु आज शासन ने भी शिक्षा को सम्पत्ति सम्बन्धों में जो गिरावट आई है उसके लिये वर्तमान शिक्षण अर्जन का माध्यम बना लिया है और इतनी ऊँची फीस स्कूलों, ० अष्टदशी / 1120 Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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