Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 330
________________ शिक्षा केन्द्र बच्चों की दूसरी पाठशाला है। बचपन के समाप्त हो जाता है। आजकल हम वैचारिक एवं चारित्रिक संस्कार ही आगे चलकर पुष्पित एवं पल्लवति होते हैं। एक संक्रमण के काल से गुजर रहे हैं। आचार-विचार एवं कर्म के मनोवैज्ञानिक का कहना है कि बच्चा ५ वर्ष की आयु में जो प्रदूषण से व्यक्ति विविध दुर्व्यसनों में उलझकर रह गया है। भविष्य में उसे बनना है वह बन जाता है। बाल मन में कोमल उसकी निर्माणकारी जीवन ऊर्जा भटक गई है। भावनाओं का सुहावना संसार होता है। यह जीवन की अनमोल उसकी फैशनपरस्ती कथित पाश्चात्य सभ्यता का अवस्था है। संस्कारों का बीजारोपण इसी अवस्था में किया जाना अंधानुकरण, प्रचार माध्यमों द्वारा नशा व मांसाहार को प्रोत्साहन, चाहिये। होटल संस्कृति, गलत दोस्ती आदि ने पूरे संस्कार व नैतिक __ कहा जाता है कि Well begin is half done अर्थात् मूल्यों को ढक रखा है। चारों ओर व्यसन पीड़ित जन मानस अच्छी शुरुवात अच्छी सफलता का प्रतीक है। संस्कारों के क्रम दीख रहा है। ऐसी स्थिति में नैतिक/चारित्रिक मूल्यों को सुरक्षित में हमें ध्यान रखना होगा कि बालक परिवार का एक सम्मानित बनाये रखना एक बड़ी चुनौती है। उसके लिए जीवन की और प्यारा सदस्य है। उसके मानसिक संवेगों और शारीरिक प्रारंभिक आवश्यकता है दुर्व्यसनों को त्याग करने की। निम्न विकास में हमारा उसे पूरा सकारात्मक सहयोग मिलना अति व्यसनों को जीवन से दूर करें - आवश्यक है। बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक उसके विकास १. जुआ सट्टा खेलने का त्याग। २. मांस-भक्षण का का पथ हमें प्रशस्त करना है। उसकी भावनाओं, विचारों तथा __ त्याग ३. मदिरापान, धूमपान का त्याग। ३. पर स्त्रीगमन का प्रयत्नों में सद्संस्कारों का समावेश करने से उसका व्यक्तित्व । त्याग। ५. शिकार खेलने का त्याग। ६. चोरी करने का त्याग। इसी अवस्था से निखरने लगेगा। संस्कारित परिवार में ही ७. वैश्यागमन का त्याग। संस्कारवान बच्चों का सर्वांगीण विकास होता है। घर को मन्दिर जीवन में नैतिकता एवं सात्विकता के लिए व्यसन मुक्त कहा गया है। हम भी वैसी ही स्थिति अपने परिवार में बनायें होना पहली शर्त है। व्यसन मुक्ति ही संस्कार युक्त जीवन का जिससे घर मन्दिर और स्वर्ग लगे। जब देश की व्यवस्था एवं पर्याय है। संस्कार जागरण एवं नये समाज के निर्माण के लिए संचालन के सूत्र तथा सामाजिक व्यवस्था संस्कारवान लोगों के व्यसन मुक्ति अनिवार्य है। हाथों में होगी तो हम गर्व के साथ नया परिवर्तन देख सकेंगे। औरों के हित जो रोता है, औरों के हित जो हँसता ____ व्यसन मुक्ति की ओर : व्यसनों से मुक्त जीवन का अनंद ही अनूठा है। जीवन सरल एवं सहज हो जाता है। सरल उसका हर आँसू रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है। जीवन में ही प्राणी मात्र के साथ मैत्री भाव का अंकुर अंत:करण सेवा का पथ - संस्कार का एक पहलु व्यसन मुक्ति में प्रस्फुटित होता है, सेवा भावना बलवती होती है। यही है तो दूसरा पहलु सेवा है। सेवा को ईश्वर तक पहुंचने का सबसे संस्कारित व्यक्ति का परिचायक है। मेरी भावना की निम्न सरल मार्ग माना गया है। दीन-दुखी, पीड़ितों, अनाथों, विकलांगों पंक्तियों में छिपा है यही भाव एवं अभावग्रस्त लोगों की सेवा का शुभ संकल्प ही संस्कार की मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, सच्ची कसौटी है। विशेषकर अपंग, अनाथ की सेवा तो ईश्वर दीन-दुखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्रोत बहे। सेवा के समान है। हमारे आस-पास कितने ही दुःख अभाव व दुर्जन, क्रूर, कुमार्ग-रतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे। बीमारी से ग्रस्त हैं जिन्हें सेवा, सहारा व सहयोग की साम्य भाव रक्खू मैं उनपर, ऐसी परिणति हो जावे।। आवश्यकता होती है। विकलांगता से तात्पर्य है कि इंद्रियों की अर्थात् निश्छल हृदय से ही करुणा का स्रोत नि:सृत होता प्राप्ति तो है लेकिन इंद्रियों से जुड़े बल, प्राण या तो निष्क्रिय हो है जिससे समस्त जगत के प्रति मैत्री एवं समता भाव का उद्भव गये हैं या शिथिल हो गये हैं। मानव शरीर पाकर भी जो होता है। जिससे पर पीड़ा की अनुभूति होती है और हम पर विकलांगता के शिकार हैं, अपंगता के अभिशाप से ग्रस्त हैं ऐसे परोपकार के लिए प्रवृत होते हैं। अन्य जीवों को भी अपनी । लोगों को मानसिक संबल, शारीरिक सहयोग और आर्थिक आत्मा के तुल्य समझना चाहिये। मन में अपकारी के प्रति भी । सहायता मुहैया कराना ही मानवता की पूजा है। मानव सेवा दुर्भावना न हो यही साम्य भाव है। वस्तुत: सेवा का श्रेष्ठतम पहलू है। यहाँ पर स्वामी विवेकानंद संस्कार के प्रथम चरण में ही यदि हमने उपरोक्त तथ्यों का वक्तव्य उद्धृत कर रहा हूँको जीवन में आत्मसात् कर लिया तो व्यसन का अध्याय ही ० अष्टदशी / 2390 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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