Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 332
________________ डॉ. वसुमति डागा उच्च उड़ान नहीं भर सकते तुच्छ बाहरी चमकीले पर । रीडर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष महत् कर्म के लिये चाहिये महत् प्रेरणा बल भी भीतर ।। बंगवासी कॉलेज, कोलकाता वास्तविकता यही है कि उदात्तोन्मुखी यात्रा के लिये लक्ष्य भी उदात्त होना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में भौतिक सुखों के अभाव से व्यथित है तो यह स्थिति उसके लिये दुःखपूर्ण है और यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में सत्य के अभाव से व्यथित है तो यह स्थिति उसके लिये दुःखपूर्ण है। परन्तु उक्त दोनों प्रकार के दुखों में गुणगत अन्तर है। प्रथम दुःख द्रव्य, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि के अभाव के कारण होने से जीवन-यात्रा को अपकर्ष की ओर ले जाने वाला है। द्वितीय दुःख सत्य के अभाव में होने के कारण जीवन यात्रा को उत्कर्ष की ओर ले जानेवाला है। यही वह बिन्दु है जहाँ से वास्तविक साधना का आरम्भ होता है। जहाँ तक जीवन में प्रेय प्राप्ति का उद्देश्य है तो यह सम्भव है कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ (साधना) से भौतिक सुखों को उपलब्ध कर सकता है, परन्तु ऐसा व्यक्ति एकांगी दृष्टि के कारण अथवा सम्यक दृष्टि के अभाव के कारण दुख रहित अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकता। भौतिक सुखों का ऋणात्मक पक्ष किसी भी क्षण उसे कुण्ठा, संत्रास और विषाद से घेर सकता है। यह स्वाभाविक है कि राग-द्वेष, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, सफलता-असफलता की अनुभूतियाँ उसकी जीवन-रेखा साध को आड़ा-तिरछा, ऊँचा-नीचा करती ही रहेंगी। जीवन के इसी परिदृश्य साधना वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति किसी विशेष लक्ष्य या को देखकर भर्तृहरि ने कहा था - उद्देश्य की पूर्ति के लिये एक विशेष साधन, पद्धति, पंथ, माध्यम, भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता उपाय आदि के द्वारा स्वयं को परिचालित करते हुये लक्ष्य प्राप्ति की स्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः। ओर अग्रसर होता है। साधना शब्द की व्युत्पत्ति सिधू धातु से हुई है कालो न यातो वयमेव याता(सिध् + णिच् + युच् + टाप = साधना) जिसका अर्थ है निष्पन्नता, स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा। किसी कार्य की पूर्ति, पूजा-अर्चा तथा संराधन या प्रसाधन। मनुष्य अर्थात हम सांसारिक भोगों का उपभोग नहीं कर पाये अपितु चिन्तनशील प्राणी है। उसका चिन्तन ही उसकी जीवन-यात्रा की दिशा उनको प्राप्त करने की दुश्चिन्ता से हम ही ग्रसे गये। हमने तप नहीं किया को निर्धारित करता है। यह चिन्तन लौकिक अभ्युदय या पारलौकिक प्रत्युत् आध्यात्मिक आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध ताप हमें ही कल्याण का हो सकता है। इसे ही हमारे आचार्यों ने प्रेय और श्रेय की संज्ञा दी है। जीवन में चाहे प्रेय प्राप्ति की अभिलाषा हो या श्रेय प्राप्ति सन्तप्त करते रहे। नाना, प्रकार के भोगों को भोगते हुए हम काल को की, साधना की अनिवार्यता दोनों में ही है। यदि कोई व्यक्ति __नहीं काट पाये, हाँ, स्वयं ही काल कवलित हो गये। इस प्रकार तृष्णा साधनारहित जीवन जीता है तो यह दयनीय स्थिति का ही सचक है। बूढ़ा नहीं हुई बल्कि हम वृद्ध हो गये। ऐसे व्यक्ति की तुलना पशु से की जाती है। पशु और मनुष्य की कुछ क्या कारण है कि धन और वैभव के अंबार के बीच भी मनुष्य सहजात वृत्तियां हैं, यथा - आहार, निद्रा, भय, मैथुन। जैसे-जैसे वह भय, चिन्ता और असंतोष का जीवन जी रहा है, भौतिक विकास की इन वृत्तियों से परे होता है वैसे-वैसे उसकी चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है ऊंचाइयों को उपलब्ध करते हुये भी परिवेश में हिंसा, द्वेष और और मनुष्यता का विकास होता है। मनुष्य अन्य प्राणियों से इसीलिए अराजकता की वृद्धि हो रही है। हर तीसरे व्यक्ति को अपने मन के श्रेष्ठ है कि उसके पास बुद्धि के साथ-साथ विवेक भी है। उसके लिये इलाज के लिए मनोचिकित्सक की शरण लेनी पड़ रही है, वैश्वीकरण यह मनुष्य शरीर भोग का साधन भी हो सकता है और मोक्ष का साधन के बावजूद व्यक्ति व्यक्ति के बीच की दूरियाँ बढ़ी हैं। वृद्ध माता-पिता भी। यह उसकी अपनी विवेक शक्ति पर निर्भर करता है कि उसके ___ को अपने जीवन निर्वाह के लिए कानून का दरवाजा खटखटाना पड़ जीवन की दिशा अभ्युदय की हो या निःश्रेयस की। कवि ने कहा है ० अष्टदशी / 2410 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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