Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 335
________________ प्राप्त कर लेता है। सामायिक का साधक द्रव्य, काल, क्षेत्र, भाव की विशुद्धि के साथ मन-वचन काया की शुद्धि से सामायिक ग्रहण करता है । "परद्रव्यों से निवृत्त होकर साधक की ज्ञान चेतना जब आत्मस्वरूप में लीन होती है तभी सामायिक होती है।" तीर्थंकर भगवान भी जब साधना मार्ग में प्रवेश करते हैं तो सर्वप्रथम सामायिक चारित्र स्वीकार करते हैं। बिना समत्व के संयम या तप के गुण टिक नहीं सकते हिंसा आदि दोष सामायिक में सहज ही छोड़ दिये जाते हैं। अतः आत्मस्वरूप को पाने की यह मुख्य सीढ़ी कह सकते है। भगवती सूत्र में स्पष्ट कहा है आया खलु सामाइये, आया सामाइयस्स अट्ठे । अर्थात् आत्मा ही सामायिक ही और आत्मस्वरूप की प्राप्ति ही सामायिक का प्रयोजन है। व्यवहार में जब तक, स्वाध्याय एवं ध्यान और सादे वेश भूषा में शांत बैठकर साधना करना सामायिक है। राग-द्वेष को हटाना या अधिकारों को जीत लेना सामायिक का निश्चय पक्ष है। २४ जिनेश्वरों की स्तुति हमारे मन को निर्मलता से संस्कारित करती है। जिनेश्वर भगवान के गुणों की स्मृति में मन पावन हो जाता है और चेतना में उदात्तोन्मुखता का बीजारोपण होता है। वन्दना के द्वारा अहम् का विगलन होता है। विनम्रता आत्मशक्ति को प्रस्फुटित करती है। प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान के पीछे बड़ी मनोवैज्ञानिक दृष्टि है प्रतिक्रमण के द्वारा साधक अपनी दैनन्दिनचर्या का अवलोकन करता है, कृत त्रुटियों के प्रति सजग होकर प्रायश्चित करता है और भविष्य में ऐसी त्रुटियाँ न हों इसके लिए प्रत्याख्यान करता है अर्थात् संकल्पबद्ध होता है। इस प्रकार धीरे-धीरे वह अपना अन्तर निरीक्षणपरीक्षण करता हुआ धर्म को जीवन व्यवहार में उतारता चलता है। कायोत्सर्ग तो ध्यान की वह उच्चतम स्थिति है जहाँ मनुष्य समाधि में स्थित हो जाता है। साधक स्थूल शरीर, पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों एवं अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) से परे होकर आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है। कायोत्सर्ग की प्रक्रिया में शरीर शिथिल, वाणी मौन, श्वास मन्द और मन निर्विचार हो जाता है। साधक उस अन्तर्जगत में पहुँच जाता है जहाँ ईर्ष्या, विषाद, शोक, भय आदि मानसिक दुःखों की बाधा तथा सर्दी-गर्मी आदि शारीरिक दुःखों का संवेदन नहीं रहता। कायोत्सर्ग की यही स्थिति थी जिसमें विषधर सर्प चण्डकौशिक परास्त हो गया। यह कायोत्सर्ग ही सत्याग्रह को प्रतिफलित करता है। जैन धर्म की साधना प्रणाली में तप का महत्वपूर्ण स्थान है । तपस्या द्वारा साधक मन और इन्द्रियों को साधता है। तपस्या साधक में तितीक्षा भाव जगाती है, आवेगों पर विजय प्राप्त करने हेतु नियंत्रण शक्ति देती है। चैतन्यगुण सम्पन्न आत्मा से द्वेष, क्रोध, मान, Jain Education International मद, लोभ, दम्भ आदि के आवरण हट जाते हैं । इसी मैल को अलग करने के लिए शरीर रूपी बर्तन को तप की आँच से तपाया जाता है यह आँच तेज न हो तो आत्मबलरूपी घृत नहीं निकल सकता। तप द्वारा धारणाशक्ति और संकल्पशक्ति बढ़ती है। मनुष्य बड़े-बड़े संकल्पों को पूर्ण कर सकता है। तत्वार्थ सूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को साधक के लिये अनिवार्य बताया गया है। इसके पीछे गहरी मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। मानवीय चेतना के तीन पहलू माने गये हैं- ज्ञान, भाव और संकल्प चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिये सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिये ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् चारित्र का प्रावधान किया गया है। भगवान महावीर ने कहा है हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ ।। (समणसुत्तं २१२ ) अर्थात् क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ है। यह उसी तरह है जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी हुई आग को देखत सकता है पर दौड़ नहीं सकता तथा अंधा व्यक्ति दौड़ तो सकता है पर देख नहीं सकता। आन्तरिक साधना पर बल देते हुए भगवान महावीर ने कहा था न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ।। समयाए समणो होड़, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ।। (समणसुत्तं ३४०, ३४१ ) अर्थात् केवल सिर मुहाने से कोई भ्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता, कुश - चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता । व्यक्ति समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप से तपस्वी होता है। T उक्त विविध साधना प्रणालियों के विवेचन का उद्देश्य यही है कि आत्मप्रवंचना न करने वाले तथा स्वयं को धोखा न देने वाले व्यक्ति को असंदिग्ध होकर यह समझ लेना चाहिये कि जिस भौतिक सुख के लिए आज का मनुष्य समाज प्रयत्नशील है, वह सुख मिथ्या है, मानवीय गरिमा के योग्य नहीं है। धन जीवन का साधन था पर उसे सिद्धि मान लिया गया और इसी भ्रम से पूरा मनुष्य समाज ग्रसित हो गया है। हमने भौतिक उपलब्धियों की सुख-साधनों का विस्तार किया, वैज्ञानिक सुविधाओं से स्थान की दूरियाँ कम कीं, दुनिया में हम एक दूसरे के निकट आये, अयोनिज सृजन क्लोन का आविष्कार किया, लेकिन हम एक बार अपने भीतर झाँके कि क्या हमें शान्ति है ? क्या हम क्लेष रहित हैं? क्या हम निर्भय हैं ? उत्तर अधिक छ अष्टदशी / 244 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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