Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 232
________________ अपने छात्र-छात्राओं का उपयोग करनेवाला और इसी को गुरु प्राप्त करना नहीं था वरन् उसके समक्ष तो शिक्षार्थी सहित सेवा का पर्याय माननेवाला शिक्षक, शिक्षक होने योग्य नहीं वरन् सामाजिक चित्त शुद्धि के आयोजन एवं उत्तरोत्तर उन्नयन का उसका तो संवेदनात्मक स्तर पर छात्र के प्रति अनन्य प्रेम होना सर्वाधिक महत् दायित्व था। आज के शिक्षक को ऐसी ही चाहिये। गीता अध्याय दस में शिक्षक श्रीकृष्ण के शिक्षार्थी के शान्तिमय क्रान्ति का अग्रदूत बनकर "पथीकृत विचक्षणः" प्रति अतिशय प्रेम के समान, जिसकी पराकाष्ठा की घोषणा बन शिक्षार्थी के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने होंगे। श्री माँ का "पाण्डवानाम् धनंजय" के कथन में दृष्टव्य है, जिसके लिये अभिमत है : विनोबा कहते हैं कि इससे अधिक प्रेम का पागलपन और "यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारा बच्चा आदर करे तो प्रेमोन्मत्तता कहाँ होगी? ग्यारहवाँ अध्याय इसी प्रीति का प्रसाद स्वयम् अपने प्रति आदर भाव रखो तथा सम्मान के उपयुक्त रूप है। यह निश्चित है जहाँ प्रेम होगा वहाँ अहिंसा, धैर्य, करुणा, बनो। कभी स्वेच्छाचारी, अत्याचारी, असहिष्णु और क्रोधित मत क्षमा आदि की भावनायें स्वमेव प्रतिष्ठित हो जायेगी। हमारी होओ। बच्चे को शिक्षा देने की योग्यता प्राप्त करने के लिये शिक्षा की भारतीय संकल्पना परस्पर परायणता "बौधयन्तः प्रथम कर्तव्य है अपने आप को शिक्षा देना, अपने विषय में परस्परं" की भावना पर आधारित है। हमारी प्राचीन परम्परा तो सचेतन होना और अपने ऊपर प्रभत्व स्थापित करना जिससे हम "तेजस्विनावधीतमस्तु" की परम्परा है जिसमें शिक्षक बच्चे के सामने कोई बुरा उदाहरण पेश न करें। एकमात्र शिक्षार्थी के अध्ययन के स्थान पर हम दोनों (शिक्षक और उदाहरण ही शिक्षा फलदायी बनती है।" बापू ने भी एक बार शिक्षार्थी) का अध्ययन तेजस्वी बने, ऐसी कामना की गई है। छात्र-छात्राओं को सम्बोधित करते हुए कहा था कि "आचार्य शिक्षा की यह विधायक धारणा शिक्षक के अहं और प्रभुत्व की तथा अध्यापकगण पुस्तकों के पृष्ठों से चरित्र नहीं सिखा सकते। भावना को नियंत्रित कर स्वस्थ परम्परा का पोषण करती है। चरित्र निर्माण तो उनके जीवन से सीखा जाता है।" शिक्षक द्वारा अनुगमित इस प्रकार की सहयोगात्मक अभिवृत्ति वस्तुत: शिक्षक के विचार और कार्य संयुक्त होकर छात्र में आस्था का संचार कर उसकी असीम सम्भाव्यताओं को विद्यार्थी के मन में सहयोग, सहिष्णुता, त्याग, प्रेम आदि उजागर करती है, ऐसे शिक्षक के प्रति ही छात्र सहज समर्पित भावनाओं का पोषण करने में सक्षम होंगे। आज शिक्षक के पार्ट हो अर्जुन के समान कह सकता है पर मन, वचन और कर्म की एकतानता एवं गत्यात्मकता का नष्टोमोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत अभाव शिक्षा की सबसे बड़ी त्रासदी है। नैतिक जवाबदेही की स्थितोऽस्मि गत संदेहः करिष्ये वचनम् तव ।। १८/७३ । अपेक्षा यह है कि अध्यापक का व्यक्तित्व व्याधात्मक न हो, व्यवहार निष्ठा : सिद्धांत और व्यवहार में दोहरी नीति का अनुगमन न हो। ज्ञान विनोबा "शिक्षा प्रचार" में कहते हैं कि "गीता में के तत्काल संक्रमण हेतु शिक्षा में इस प्रकार की स्थिति ठोस प्रायः ज्ञान और विज्ञान दो शब्द साथ-साथ आते हैं। ज्ञान का । और उत्तम प्रभाव की वाहिका सिद्ध होगी। अनुकरणीय व्यक्तित्व अर्थ है आत्मज्ञान जो बुद्धिगत है, वह जब इन्द्रियों में उतरता है, के रूप में नैतिक जवाबदेही से विभूषित इस प्रकार के शिक्षक जीवन में पग जाता है तो विज्ञान बन जाता है। विज्ञान का अर्थ का अर्थ होता है - कक्षा में भयरहित शान्ति और अनुशासन का है पगा हुआ ज्ञान, परनिष्ठित ज्ञान। ..... विवेक की सहायता वातावरण, छात्रों में आनन्ददायी स्फूर्ति की विद्यमानता, शिक्षक से ज्ञान विज्ञान बनता है। जब तक पूरा विवेक जाग्रत न हो के प्रति सहज किन्तु सशक्त आदर भाव का अविरल प्रवाह। ज्ञानानुरूप जीना सम्भव नहीं होगा। जब तक ज्ञान आचरण में अन्तत: शिक्षा उत्पाद नहीं है, निश्चित रूप से शिक्षा नहीं उतरता उसे विज्ञान का रूप नहीं मिलेगा।'' संस्कार है जो शिक्षार्थी को उसकी समग्र सम्भावनाओं से संयुक्त भारत में प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक आचार्यों की करता है और जिसकी सिद्धि शिक्षक की नैतिक जवाबदेही की परम्परा चली आयी है। संस्कृत का "आचार्य' शब्द स्वयम सुदृढ़ पीठिका पर आधारित है। बोलता है - आचिरति आचारम् कारयति - जो स्वयम् आचरण करता है और दूसरों से कराता है वह है आचार्य। इस संकल्पना के अधीन हमारे यहाँ अध्यापक स्वयम् में एक संस्था था, किसी संस्था के अधीन नहीं था। उस अध्यापक का कार्य मात्र वेतन ० अष्टदशी/1410 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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