Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 300
________________ "माणुसत्तामि आयाओ, जो धम्म सोच्चासद्दहे। अर्थात् इस जगत् में जो प्राणी हैं, वे अपने-अपने संचित तवस्सी वीरियं लधु, संवुडे निद्धणे रयं।। कर्मों से ही संसार भ्रमण करते हैं और किये हुए कर्मों के -उत्तराध्ययन सूत्र ३/११ अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। फल भोगे बिना अर्थात् मनुष्य-जन्म पाकर जो धर्म को सुनता और उसमें उपार्जित कर्मों से प्राणी का छुटकारा नहीं होता। श्रद्धा करता हुआ उसके अनुसार पुरुषार्थ आचरण करता है, वह कर्म-बंध का मूल कारण राग-द्वेष की प्रवृतित हैतपस्वी आगामी कर्मों को रोकता हुआ संचित कर्म रूपी रज को "रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्म च मोहप्पभवं वयंति। धुन डालता है। कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई मरणं वयंति।।" मनुष्य-जीवन के उत्थान का जो मार्ग है, उसे रत्न-त्रय (त्रि -उत्तराध्ययन सूत्र ३२:७ रत्न) कहा गया है। तत्वार्थ सूत्र में कहा है अर्थात् राग और द्वेष कर्म के बीज (मूल कारण) हैं। कर्म “सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः" मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है, जन्म-मरण -तत्त्वार्थ सूत्र १/१ । को दु:ख का मूल कहा गया है। साधक के लिए यह आवश्यक अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र- इन है कि वह अपने मन पर नियंत्रण करे। भगवान ने कहातीनों का समन्वित रूप (ये तीनों मिलकर) मोक्ष का साधन हैं। "पहावंतं निगिण्हामि, सुयरसस्सी-समाहियं। पंचास्तिकाय सूत्र सं० १६० में कहा गया है- धर्मास्तिकाय न मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवज्जई।।" आदि (छह द्रव्य) तथा तत्वार्थ आदि में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन -उत्तराध्ययन सूत्र २३/५६ है। अंगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यक ज्ञान है। तप में प्रत्ययशीलता अर्थात् भागते हुए दुष्ट अश्व को मैं ज्ञान-रूपी लगाम के सम्यक चारित्र है। यह व्यवहार-आचार मोक्षमार्ग है। द्वारा अच्छी तरह निगृहीत करता हूँ। इससे मेरा अश्व उन्मार्ग में सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्र - गलत रास्ते पर नहीं जाता। वह ठीक मार्ग को ग्रहण करता नहीं सधता। जीवन के उत्थान के लिए ज्ञान और क्रिया का हुआ चलता है। मन के बारे में कहा गया हैसमन्वय होना आवश्यक है। यह बात 'आचारांग नियुक्ति' में "मणो साहस्सिओ भीमो, दुट्ठसो परिधावई। बड़े ही सुन्दर ढंग से स्पष्ट की गई है तं सम्मं तु निगिण्हामि, धम्मसिक्खाइ कन्थगं।।" "हयं नाणं किया हीणं, हया अण्णाणओ किया। -उत्तराध्ययन सूत्र २३/५८ पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो य अंधओ।।" -आचारांग नियुक्ति १०१ अर्थात् मन ही वह साहसिक (दुःसाहसी), रौद्र (भयावह) अर्थात् क्रियाहीन का ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानी की क्रिया और दुष्ट अश्व है, जो चारों ओर दौड़ता है। मैं उसे कन्थक व्यर्थ है। जैसे एक पंगु वन में लगी हुई आग को देखते हुए भी उच्च जाति सम्पन्न, सुधरे हुए अश्व की भाँति धर्मशिक्षा द्वारा भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अंधा व्यक्ति दौड़ते अच्छी तरह निगृहीत, नियंत्रित करता हूँ। हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है। आज का मानव समझता है कि संसार के भौतिक साधनों भगवान महावीर की धर्म-क्रांति की मुख्य उपलब्धि है द्वारा ही सुख मिल सकता है। अत: वह उनकी प्राप्ति व उन्होंने ईश्वर की जगह कर्म को प्रतिष्ठा दी। उन्होंने भक्ति के अभिवृद्धि में अपनी पूर्ण शक्ति लगा देता है। इच्छाओं को बढ़ाते स्थान पर सत्कर्म व सदाचार का सूत्र दिया। उन्होंने कहा जाना, उनकी पूर्ति के लिए उत्पादन के साधनों की वृद्धि करते जाना तथा उनके द्वारा इच्छाओं के तृप्त करते जाना यही "सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवन्ति। भोगवादी मनुष्य का जीवन-क्रम है। भगवान महावीर ने कहा कि दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवन्ति।।" सभी भौतिक साधन मनुष्य को सुख देने में असमर्थ हैं-औपपातिक सूत्र ७१ "सव्वं जग जइ तुहं, सव्वं वा वि धणं भवे। अर्थात् अच्छे कर्म अच्छे फल देनेवाले होते हैं और बुरे सव्वं पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणाय तं वे।।" कर्म बुरे फल देने वाले होते हैं। मनुष्य अपने संचित कर्मों के -उत्तराध्ययन सूत्र १४/३९ अनुसार ही सुख-दुख प्राप्त करता है अर्थात् यह सारा जगत और यह सारा धन भी तुम्हारा हो "जमिणं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो। जाय तो भी वे सब अपर्याप्त ही होंगे और न ही ये सब तुम्हारा सयमेव कडेहिं गाहइ, नो तस्स मुच्चेज्जपुट्ठयं।।" रक्षण करने में ही समर्थ होंगे। -सूत्रकृतांग सूत्र १, २/१४ ० अष्टदशी / 2090 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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