Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 323
________________ वर्तमान सन्दर्भ में डॉ० सुधा जैन नहीं। 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में अहिंसा के सव्वभूयखेमंकरी प्राध्यापक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि वह अमृतरूपा, परब्रह्मस्वरूपा, सर्वव्यापिनी, क्षेमवती, क्षमामयी मंगलरूपा एवं सर्वभूत कल्याणकारिणी है। अहिंसा शरणदात्री है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में इसे दयारूपी कहा गया है। अहिंसा के निर्मल उद्देश्य से मनुष्य बिना किसी को कष्ट दिये अपनी उन्नति कर सकता है। अहिंसा कोरा उपदेश नहीं है, अपितु वह समस्त प्राणियों में चेतनता की अभिव्यक्ति है। यदि समस्त प्राणी एकदूसरे के प्रति घातक स्थिति अपना लें तो सृष्टि ही नष्ट हो जायेगी। अहिंसा के आधार पर ही मानव समाज का अस्तित्व है। यदि कोई यह माने कि बिना हिंसा के हमारा जीवित रहना संभव नहीं है तो यह उसकी मिथ्या धारणा है। यह स्वीकार किया जा सकता है कि सूक्ष्म अहिंसा का पालन संभव नहीं है परन्तु स्थूल रूप से अहिंसा का पालन संभव है और आवश्यक भी। क्योंकि इसी से जनकल्याण संभव है। इस मार्ग की सत्यता को अनेकान्तवाद के द्वारा परखा जा सकता है। अनेकांत को परिभाषित करते हुए कहा गया है- 'एकवस्तुनि वस्तुत्व निष्पादक परस्पर विरुद्ध शक्तिद्वय प्रकाशनमनेकान्तः । अनेकान्त जिस उद्देश्य की समझ (Understanding) पैदा करता है, स्याद्वाद उसी तत्व की अभिव्यक्ति (Expression) में महावीर की शिक्षाएँ सहायक है। भगवान महावीर के अचौर्य और अपरिग्रह के उपदेश से जिस विज्ञान के नवीन आविष्कारों को देखकर मानव ही संसार में क्लान्त प्राणियों का निस्तार हो सकेगा। साम्राज्यवाद प्रसन्न होता है और पूरे विश्व में अपना साम्राज्य फैलाना चाहता और पूँजीवाद ने तो मनुष्य को बद से बदतर अर्थात् जानवरों से है, वह आविष्कार आज उसके लिए कितना कष्टदायक है, इस भी अधिक पतित, क्रूर, दरिद्र एवं नारकीय बना दिया है। मानव बात से वह अनभिज्ञ है। आज समाज में जो अशांत एवं दु:ख की इसी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप आज परिवर्तन की वातावरण व्याप्त है उसके पीछे कारण नित हो रहे नवीन आवश्यकता है। यदि परिवर्तन नही होता है तो परिणाम की आविष्कार ही हैं। आज का विश्व अपनी क्रूर हिंसावृत्ति से स्वयं कल्पना से ही कम्पन शुरु हो जाता है। ऐसे समय में मानव को पीड़ित है और निरन्तर शांति, राहत, शुकुन प्राप्त करने के लिए कोई त्राण दे सकता है तो वह है भगवान महावीर का अचौर्य एवं प्रयास कर रहा है, अपरिग्रह का सिद्धान्त। अन्यथा मानव का अस्तित्व ही ऐसे समय में महावीर के बताये मार्ग पर चलना ही उसके संदेहास्पद हो जायेगा। भगवान महावीर के द्वारा महाव्रत और लिए श्रेयष्कर होगा और वह हिंसा के क्रूर, संकीर्ण वातावरण अणुव्रत के रूप में प्रतिपादित अपरिग्रह का सिद्धान्त सर्वव्यापक, से निकलकर शांति के निर्मल आकाश/गगन में निर्भय हो सार्वकालिक एवं सार्वेशिक सत्य है। परिग्रह सर्वत्र दु:ख का मूल विचरण कर सकेगा। भगवान महावीर की ही शिक्षा में उसकी माना गया है। इसलिए 'आचारांगसूत्र' में कहा गया हैआर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं नैतिक उन्नति निहित है। 'परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा' अर्थात् परिग्रह से अपेन मनुष्य की आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नत्ति का सरस, सुगम्य को दूर रखें, क्योंकि यह शांति एवं समता को भंग कर अशंति और दृढ़ मार्ग एक ही है और वह है भगवान महावीर की अहिंसा, एवं विषमता उत्पन्न कर देता है। 'सूत्रकृतांगसूत्र' में वर्णित है अचौर्य, अपरिग्रह तप एवं ब्रह्मचर्य। यही एक मात्र ऐसा मार्ग है कि अपरिग्रह व्रत से अर्थात् मूर्छा के अभाव से, आसक्ति के जिस पर चलकर मानव अपनी सर्वतोमुखी उन्नति कर सकता अभाव से व्यक्ति दु:खों से मुक्त होता है। 'ठाणं' में तो परिग्रह है। एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों के प्रति अहिंसा की को नरक का द्वार तथा अपरिग्रह को मुक्ति का द्वार कहा गया बात जितनी सूक्ष्मता से जैन धर्म में प्रतिपादित है उतनी अन्यत्र है। आचार्य तुलसी ने 'ममत्वविसर्जनं अपरिग्रहः' ममत्व के ० अष्टदशी / 232 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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