Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 298
________________ दुलीचन्द जैन आज के अशान्त युग में महावीर वाणी की उपादेयता की उपादेयता आधुनिक युग में विज्ञान और तकनीकी ने आशातीत प्रगति की है। आज मनुष्य ने प्रकृति के साधनों पर विजय प्राप्त कर ली है। आवागमन के साधनों के विकास ने राष्ट्रों के बीच की दूरियों को कम कर दिया है लेकिन क्या हम कह कहते हैं कि आज का मानव प्राचीन युग की तुलना में अधिक सुखी, आनन्दित एवं प्रसन्न है ? शायद नहीं। इसका कारण यह है कि मनुष्य के मन और बुद्धि का तो विकास हुआ है पर उसके हृदय का विकास नहीं हो सका है। महाकवि रामधारीसिंह 'दिनकर' के शब्दों में - । "बुद्धि तृष्णा की दासी हुई, मृत्यु का सेवक है विज्ञान । चेतता अब भी नहीं मनुष्य, विश्व का क्या होगा भगवान् ?" आज दुनिया के विकसित कहे जानेवाले राष्ट्र अनेक प्रकार के भीषण शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्रों के उत्पादन में लगे हुए हैं। पिछले विश्वयुद्ध में जापान के हीरोशिमा और नागासाकी में जो बम गिरे थे, उनसे लाखों व्यक्ति हताहत हुए थे तथा वहाँ का जल और वायु विषाक्त हो गया था और अनेक बीमारियाँ फैल गई थीं। लेकिन आज उनसे बहुत अधिक शक्तिशाली अणु और परमाणु ही नहीं, इस प्रकार के रासायनिक बमों व आयुधों का निर्माण हो चुका है, जो कुछ ही समय में समस्त मानव जाति के विनाश की सामर्थ्य रखते हैं। आर्थिक प्रतियोगिता की अंधी दौड़ तथा अनियंत्रित स्वतंत्रता ने मनुष्य का जीवन अशांत बना दिया है। Jain Education International इस प्रकार की भीषण परिस्थिति में विश्व के चिंतक अब यह सोचने हेतु बाध्य हो रहे हैं कि इन कठिनाइयों से मानव के त्राण का क्या उपाय हो सकता है ? जैन आगम ग्रंथों में इन समस्याओं के समाधान का विशद विवेचन मिलता है। वहाँ पर हिंसा और अहिंसा की गंभीर व्यवस्था उपलब्ध है। अहिंसा जैनधर्म का प्राण है। अहिंसा का अर्थ मात्र इतना ही नहीं है कि किसी प्राणी की हिंसा न की जाय, इसका विधेयात्मक अर्थ है, विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम, बन्धुत्व एवं आत्मीयता की भावना का विकास किया जाय । यह भावना मात्र मनुष्य जाति के प्रति ही नहीं, किन्तु समस्त प्राणी जगत के प्रति व्याप्त हो । जैनधर्म की मान्यता है कि मनुष्य और प्रकृति में घनिष्ठ संबंध है तथा दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। सृष्टि के प्रत्येक जीव को जीने का अधिकार है- केवल मनुष्य मात्र को ही नहीं, पशु-पक्षी, वनस्पति इत्यादि सभी को जीने का हक है। भगवान महावीर ने कहा " सव्वे पाणा पियाठया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला। अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउकामा सव्वेसिँ जीवियं पियं।।” अर्थात् सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, सुख अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है। वध सबको अप्रिय है। सभी दीर्घ जीवन की कामना करते हैं। - आचारांग सूत्र १/२/३/६३ यह समझकर किसी जीव को त्रास नहीं पहुँचाना चाहिये । ("न य वित्तासए पर । ) " - उत्तराध्ययन सूत्र २/२० किसी जीव के प्रति वैर-विरोध भाव नहीं रखना चाहिये । ("ण विरुज्झेज्ज कोणई । ") - सूत्रकृतांग सूत्र १/१५/१३ सब जीवों की प्रति मैत्री भाव रखना चाहिये। ("मितिं भूएहि कप्पए) उत्तरा सूत्र ६ / २ प्राणी मात्र के प्रति प्रेम व आत्मीयता की भावना की विस्तृत व्याख्या आचारांग सूत्र के निम्न पदों में मिलती है "तुमसि णाम सच्चेव (तं चेव) जं हंतव्वं हि मण्णसि । तुमंसि णाम सच्चेव जं अज्जावेयत्वं ति मण्णसि । तुमंसि णाम सच्चेव जं परियावेयववं ति मण्णसि । तुमंसि णाम सच्चेव जं परिघेत्तव्वं ति मण्णसि । तुमंसि णाम सच्चेव जं उद्दयेवव्यं ति मण्णसि । अंजू चेय पडिबुद्धिजीवी । तम्हा ण हंता ण वि घायए । अणुसंवेयणमप्पाणेणं जं हंतव्यं णाभिपत्थए । । " - आचारांग सूत्र १, ५/५, १७० ० अष्टदशी / 207 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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