Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 314
________________ हेमन्त कुमार सिंगी अपनी स्वकीय वृत्तियों, भावनाओं व वासनाओं अथवा विचारों का अध्ययन या निरीक्षण तथा ऐसे सद्गंथों का पठन-पाठन जो हमारी चैतसिक विकृतियों को समझने और उन्हें दूर करने में सहायक हो, वे ही स्वाध्याय के अन्तर्गत आते हैं। स्वयं के अन्तर्मन यानि स्वयं का स्वयं द्वारा अध्ययन ही स्वाध्याय कहलाता है। आत्मचिंतन, आत्मसमीक्षा भी स्वाध्याय का ही रूप है। सदशास्त्रों का मर्यादापूर्वक अध्ययन करना, विधि सहित श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। आवश्यक सूत्र में स्वाध्याय का अर्थ बतलाते हुए लिखा है “अध्ययने अध्याय: शोभनो अध्यायः स्वाध्यायः" सु- अर्थात श्रेष्ठ अध्ययन का नाम स्वाध्याय है। कहने का तात्पर्य है कि आत्म कल्याणकारी पठन-पाठन रूप श्रेष्ठ अध्ययन का नाम स्वाध्याय है। दूसरों अर्थों में जिसके पठन-पाठन से आत्मा की शुद्धि होती है, वही स्वाध्याय है। "स्वेन स्वस्य अध्ययनं स्वाध्यायः" अर्थात् स्वयं के द्वारा स्वयं का अध्ययन ही स्वाध्याय सिद्धि का सफर तय करने के लिए स्वाध्याय स्यंदन है। स्वाध्याय का महत्व इसमें बैठने वाला व्यक्ति कर्मशत्रुओं को आसानी से जीत सकता जैन धर्म में तप को अत्यधिक महत्व दिया गया है, यदि है। स्वाध्याय एक चिन्मय चिराग है, जो भवकानन में भटकने हम यह कहें कि जैन धर्म तप प्रधान धर्म हैं तो भी कोई वाले व्यक्ति की राह को रोशन करता है। स्वाध्याय वह चाबी अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैन साहित्य में तप पर विस्तार से है जो सिद्धत्व के बंद दरवाजे को खोलती है। स्वाध्याय एक विवेचन किया गया है। वहां तप को मूल रूप से दो भागों में बांटा अनुपम सारथी है, जो सूर्यरथ के सारथि 'अरूण' की भांति गया है- (१) बाह्य तप और (२) आभ्यंतर तप। पुन: इन दोनों मिथ्यात्व रूपी अज्ञतिमिर का हरण करती है। को छ:-छ: भागों में बांटा गया है। स्वाध्याय भी तप है और गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- "सज्झाइंण अभ्यंतर तप के अन्तर्गत आता है। भंते, जीवे कि जणयई-भंते!" स्वाध्याय की निष्पति क्या है। स्वाध्याय का अर्थ : वाचस्पत्यम् में स्वाध्याय शब्द की श्रमण भगवान महावीर ने फरमाया 'सज्झाइणं नाणावरणिज्जं व्याख्या दो प्रकार से की है- १. स्व+अधि+ईण् जिसका तात्पर्य कम्मं खेवई' स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण होता है। है कि स्व का अध्ययन करना। दूसरों शब्दों में स्वाध्याय इसके अतिरिक्त सद्संस्कारों की प्राप्ति, ज्ञान व विनय की आत्मानुभूति है, अपने अंदर झांककर अपने आपको देखना है। आराधना, मोक्ष की उपलब्धि, कुशल कर्मों का अर्जन, कांक्षा वह स्वयं अपना अध्ययन है। मेरी दृष्टि में अपने विचारों, मोहनीय कर्म का विच्छेद, ये सारे लाभ प्राप्त होते हैं। वासनाओं व अनुभूतियों को जानने व समझने का प्रयत्न ही स्वाध्याय के प्रकार-' स्वाध्याय के प्रकार- भगवान महावीर ने स्वाध्याय के पांच स्वाध्याय है। वस्तुत: वह अपनी आत्मा का अध्ययन ही है। प्रकार बतलाय हैआत्मा के दर्पण में अपने को देखना है। स्वाध्याय शब्द की दूसरी १. वाचना २. पृच्छना ३. परिवर्तना ४. अनुप्रेक्षा ५. व्याख्या सू+आ+अधि+ईड़ इस रूप में भी की गई है। इस दृष्टि धर्मकथा से स्वाध्याय की परिभाषा होती है “शोभनोऽध्यायः स्वाध्यायः" । सदगुरू की नेश्राय में अध्ययन करना। अर्थात् सत्-साहित्य का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय की इन दोनों परिभाषाओं के आधार पर एक बात जो 0 पृच्छना - सूत्र और उसके अर्थ पर चिन्तन मनन। अज्ञात विषय की जानकारी या ज्ञात विषय उभर कर सामने आती है वह यह कि सभी प्रकार का पठन की विशेष जानकारी के लिए प्रश्न पूछना। पाठन स्वाध्याय नहीं है। आत्म विशुद्धि के लिये किया गया, ० अष्टदशी / 2230 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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