Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 310
________________ इसे और स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं - चित्त अनन्त सामर्थ्यशील है, पारद के समान चंचल है। "विघ्नों के समय उन्हें सहने में असमर्थता दिखलाने से वे जैसे पारद अग्नि में मूच्छित, मारित एवं शुद्ध होकर सिद्ध हो मिटते नहीं, और न दीनता दिखाने से मौत से ही बचा जा सकता जाता है, उसी प्रकार चित्त अध्यात्म तेज या अध्यात्म ज्ञान में है, इसलिए साधक उपसर्गों तथा विघ्नों के आने पर मन में जरा । प्रज्वलित होकर स्थिर एवं शुद्ध हो जाता है। जैसे उस सिद्ध किये भी क्लेश न मानता हुआ, 'परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करें।५ हुए पारद से रसायन के क्षेत्र में क्या साधित नहीं होता अर्थात् ध्यान हेतु समुचित स्थान : उसमें अद्भुत वैशिष्ट्य आ जाता है, उसी प्रकार जिस योगी का ध्यान के लिए स्थान आदि का निर्देश करते हुए आचार्य ज्ञान सिद्ध और स्थिर हो गया, उसके लिए तीनों जगत् में क्या सोमदेव लिखते हैं हुआ अर्थात् सब कुछ सध गया। "साधक आत्म-साक्षात्कार हेतु ध्यान के लिए ऐसे स्थान यदि यह मन रूपी हंस सर्वथा निर्मनस्क मनोव्यापार रहित को स्वीकार करे, जहाँ उसकी इन्द्रियाँ व्यासङ्ग विशेष आसक्ति हो जाय, चंचलता शून्य बन जाय, आत्म-स्वरूप में सर्वथा स्थिर रूप चोर का विघ्न न पायें। अर्थात् ध्यान के लिए ऐसे स्थान का हो जाय, तो वह सर्वदर्शी बोधरूपी हंस में परिवर्तित हो जाता है। चुनाव किया जाना चाहिये, जहाँ ऐसे व्यक्ति और ऐसे पदार्थ न सकल जगत रूपी मानसरोवर उसका अधिष्ठान बन जाता है। हों, जो मन में आसङ्ग आसक्ति, मोह उत्पन्न करें।"६ साधक मानसिक दृष्टि से आत्मा आदि ध्येय वस्तु में, साधना के लिए शरीर की उपयोगिता मानते हुए वे लिखते चैतसिक एकाग्रता साधने के रूप में क्रियाशील रहता है, हेय उपादेय आदि भावों को यथावत् जान लेता है और किसी भी तरह विभ्रान्त नहीं होता- तत्व एवं अतत्व में समान बुद्धि नहीं "यद्यपि इस शरीर के जन्म का कोई महत्व नहीं है, पर लाता।"९ यह तप, साधना आदि के द्वारा संसार समुद्र को पार करने के लिए तुम्बिका की तरह सहायक है, इसलिए साधना में इसकी ध्यान का महात्म्य : उपयोगिता मानते हुए इसकी रक्षा करनी चाहिये।'७ आचार्य ध्यान का महात्म्य वर्णित करते हुए लिखते हैं - आचार्य केवल यौगिक विधि विधान की बाह्य प्रक्रिया मात्र "यद्यपि भूमि में रत्न उत्पन्न होते हैं, किन्तु सर्वत्र नहीं होते, को महत्व नहीं देते। वे लिखते हैं : उसी प्रकार ध्यान यद्यपि आत्मा में उद्भूत होता है, पर सभी "धैर्यहीन या कायर पुरुष के लिए जैसे कवच धारण करना आत्माओं में उत्पन्न नहीं होता। वृथा है, धान्य रहित खेत की बाड़ करना निष्प्रयोज्य है, उसी मुनिवृन्द ध्यान (शुक्ल ध्यान) का उत्कृष्टसमय अन्तमुहूत प्रकार ध्यान शून्य ध्यान में जरा भी प्रवृत्त न होने वाले पुरुष के बतलाते हैं, निश्चय ही इससे अधिक मन का स्थिर रहना दुर्धर लिए तत्संबंधी विधि विधान व्यर्थ है।"८ है, जिस प्रकार वज्र क्षणभर में विशाल पर्वत को छिन्न-भिन्न सबीज निर्बीज ध्यान : कर डालता है, उसी प्रकार ध्यान आत्मा के मूल गुणों का घात करने वाले कर्म समूह को विदीर्ण कर डालता है। सबीज और निर्बीज ध्यान के विवेचन के सन्दर्भ में वे लिखते हैं : समुद्र के पानी को यदि कोई सैंकड़ों कल्पों युगान्तरों तक भी चुल्लुओं से उलीचता जाय तो भी समुद्र खाली नहीं होता, "जैसे दीपक वायु रहित स्थान मे निश्चलता पूर्वक प्रकाशमान रहता है, वैसे ही साधक का मन जब बाह्य और परन्तु प्रलयकाल का प्रचण्ड वायु उसे अनेक बार अविलम्ब खाली करने की क्षमता लिए रहता है, उसी प्रकार आत्मा में मुहूर्त आभ्यन्तरिक अज्ञान रूपी वायु से अचंचल रहता हुआ तत्वों के भर के लिए अद्भुत धर्मध्यान घातिकर्म समूह को अविलम्ब आलोकन-मनन में उल्लसित रहता है, तब उसका ध्यान सबीज ध्वस्त कर डालता है। जैसे रूप में, मरुत-प्राणवायु (परकाय (पृथकत्व वितर्क सविचार) ध्यान कहा जाता है। प्रवेश आदि) में, बाह्य वस्तुओं में मन को स्थिर करने से व्यक्ति सब साधक के चित्तरूपी निर्झर की प्रवृत्तियाँ - व्यापार अपना अभीप्सित पा लेता है, वैसे ही आत्मा द्वारा परमात्मा में निर्विचार - संक्रमण रहित (द्रव्य से पर्याय और पर्याय से द्रव्य । चित्त को स्थिर करने से परमात्मपद प्राप्त हो जाता है।"१० आदि के परिशीलन रूप संक्रमण से शून्य) होती है, आत्मा योग के सहायक हेतु अपने विशुद्ध स्वरूप में ही स्फुरित-आनन्दित रहती है, उसका वे योग के सहायक हेतुओं का निम्नांकित रूप में वर्णन वह ध्यान निर्बीज (एकत्व वितर्क अविचार) कहा जाता है। करते हैं - ० अष्टदशी / 2190 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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