Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 293
________________ न विज्जइ। णत्थि तिवेमि। (आचारांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, संकलन : रिधकरण बोथरा अध्ययन ३, उद्देशक ४ सूत्र) __ अर्थात् जो क्रोध को देखता है वह मान को देखत है, जो मान को देखता है वह माया को देखता है, इस प्रकार क्रमश: ॐ की साधना माया से लोभ को, लोभ से राग को राग, से द्वेष को, द्वेष से मोह साधौ सबद साधनौ कीजै को, मोह से गर्भ को, गर्भ से जन्म को, जनम से मार को, मार जेहि सबद ते प्रगट भये सब, सोई सबद गहि लीजै।। से नरक को, नरक से तिर्यंच को, तिर्यंच से दुःख को देखता उसी परम शब्द को पकड़ो ॐ को ही साधो। ॐ को है। इस प्रकार मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, ही जपो। ॐ की ही प्रतिध्वनि सुनो। ॐ में ही रस लो। ॐ में गर्भ, मार, नरक, तिर्यंच और दुःख का दर्शन करता है। यह बड़ा आकर्षण है। 'रसो वै सः' वह रस रूप है। परमात्मा रस शस्त्र उपरत द्रष्टा का दर्शन है जो कर्म से उपरत करता है। रूप है। 'ॐ' उसका वाचक है। उसमें डूबो। रोम-रोम से उसी आशय यह है कि व्युत्सर्ग की कोई प्रक्रिया नहीं होती, का रस पियो। परन्तु ध्यान की पात्रता प्राप्त करने के लिए जैन दर्शन में अणुव्रत 'ॐ' ध्यान की मौलिक ध्वनि है। 'ॐ' का ध्यान हम महाव्रत का पालन, पातंजल योग में यम, नियम, आसन, चार चरणों में पूरा कर सकते हैं। इन चार चरणों का कुल समय प्राणायाम आदि, बौद्ध दर्शन में शील और जैन दर्शन में विनय, पैंतालिस मिनट होना चाहिये। पहला, दूसरा और तीसरा चरण वैयावृत्य, स्वाध्याय आदि सद् प्रवृत्तियों का आचरण अपेक्षित है। दस-दस मिनट का है और अन्तिम चरण पन्द्रह मिनट का। संदर्भ सूत्र : 'ॐ' ध्यान-योग के पहले चरण में ॐ का पाठ करो। १. ध्यान-शतक, गाथा-२ उसका लम्बा उच्चारण करो यानि उसका जोर से रटन करो। २. उत्तराध्ययन, अ० २९, सूत्र २५ दूसरे चरण में होठों को बन्द कर लो और भीतर उसका अनुगूंज ३. पंतजलि योग, १-२ करो। जैसे भौरें की गूंज होती है, वैसे ही ॐ की गूंज करो। ४. उत्तराध्ययन, अ० २९, सूत्र २७ तीसरे चरणा में मनोमन 'ॐ' का स्मरण करो। श्वास की धारा के साथ 'ॐ' को जोड़ लो। तल्लीनता इतनी होजाए कि श्वास ५. उत्तराध्ययन, अ० २९ सूत्र २७ ही 'ॐ' बन जाएं। चौथे चरण में बिल्कुल शान्त बैठ जाओ। ६. उत्तराध्ययन, अ० २९, सूत्र २९ पहला चरण पाठ है, दूसरा चरण जाप है। तीसरा चरण अजपा है और चौथा चरण अनाहत है। चौथे चरण में पूरी तरह शान्त बैठना है, स्मृति से भी मुक्त होकर। इन शान्ति के क्षणों में ही अनाहत की सम्भावना दस्तक देगी। ___'ॐ' परमात्मा का ही द्योतक है। इसलिए इसमें रचो। यह महामंत्र है। सारे मंत्रों का बीज है यह। हर मंत्र किसी न किसी रूप में इसी से जुड़ा है। इसलिए ॐ मंत्र योग की जड़ है। एक पेड़ में पत्ते हजारों हो सकते हैं, पर जड़ तो एक ही होती है। जिसने जड़ को पकड़ लिया, उसने जड़ से जुड़ी हर सम्भावना को आत्म-सात् कर लिया। 'ॐ' कालातीत है, अर्थातीत है, व्याख्यातीत है। परमात्मा भी इसी में समाया हुआ है और यह परमात्मा में समाया हुआ है। ईसाइयों का आमीन 'ॐ' ही है। जैनों ने 'ॐ' में पंच परमेष्ठि का निवास माना है। हिन्दुओं ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश का संगम माना है। परमात्मा में डूबने वाले 'ॐ' में डूबें। ॐ से ही अस्तित्व ध्वनित होता है। 'ॐ' से ही परमात्मा अस्तित्व में घटित होता है। 'ॐ' शान्ति' इसके आगे और कोई चरण नहीं है। ० अष्टदशी / 2020 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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