Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 295
________________ जड़ सभी धर्मों का सारतत्व, सभी संस्कृतियों का आधार, सभी जन्य शक्ति द्वारा फैसला करने या अपनी बात मनवाने की विधि, विधाओं, नियम-कानूनों, नीति-अनीति भेद का केन्द्र बिन्दू बजाय बात-चीत, समझ-बूझ से, डाइलाग से वार्तालाप या मूल्यांकन के लिए अहिंसा ही है। तभी तो महाभारत महाकाव्य मध्यस्थता द्वारा मसले सुलझाने का है। निर्णय गोली की जगह के प्रस्तोता महाविभूति वेदव्यास ने काव्य के समापन में सर्वश्रेष्ठ बोली से हो। अहिंसा के विभिन्न आयाम हैं : मानवीय गुण अहिंसा को “परमोधर्म' की संज्ञा दी। अहिंसा मनुष्य का मनुष्य द्वारा संहार न करना, मारना नहीं, कष्ट परमोधर्म यानि कि इससे ऊपर और कोई सत्य नहीं, और कोई नहीं पहुँचाना, झगड़ना नही, द्वेष नहीं रखना आदि। आज धर्म नहीं, इसके बिना कोई धर्म सम्भव नहीं, कोई सभ्यता जन्मी राष्ट्रों के बीच युद्ध और गोलीबारी न हो, आतंकवादी नहीं। कोई जाति, क्षेत्र, संघ, समुदाय, देश, राष्ट्र बिना अहिंसा हमले, बम, नहीं हो, साम्प्रदायिक मारकाट न हो। जाति, के टिक नहीं सकते, रह नहीं सकते। समृद्धि की ओर तो बढ़ने धर्म, क्षेत्र विचार-भेद को लेकर शस्त्र या हिंसक संघर्ष न की बात ही नहीं है। मनुष्य हर परिस्थिति में अहिंसा चाहता है, हो। ऐसी ही अहिंसा की सर्वप्रथम एवं सबसे अधिक हिंसा को भगाना चाहता है, हिंसा से अहिंसा की तरफ जाना आवश्यकता है। दुनिया शस्त्र न बढ़ाये, न प्रयोग में चाहता है। प्रभु महावीर ने कहा अहिंसा, संयम और तप ही मुक्ति आक्रमण के लिए आये, ऐसी ही अहिंसा की चाहत का मार्ग है, यही धर्म है। विश्वभर में है। जिस तत्व अहिंसा को हर कोने में, हर देश-राष्ट्र में सिर्फ मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी, प्राणि-मात्र, हरएक हरहाल ओर हर काल, हर धर्म और हर सभ्यता में मानव सिंचित जीव-छोटी सी चींटी से लेकर हाथी तक, अहिंसक एवं करना चाहता है, वही मानवीय चाहना, वही प्रवृत्ति विश्व धर्म क्रूर हिंसक पशुओं शेर आदि तक को भी किसी तरह कही जा सकती है। अत: अहिंसा ही विश्वधर्म है, अहिंसा समूचे का कष्ट न पहुँचाना, अहिंसा के दायरे में सम्पूर्ण सर्वत्र मानव जगत की चाहना है, अहिंसा ही विश्व शक्ति का मूल है, प्राणी जगत को लाना है। जैसे हमें अपनी जान प्रिय है वैसे अहिंसा में ही विश्व की रक्षा की शक्ति छिपी हुई है। अहिंसा ही हरएक प्राणी को अपनी जान प्रिय है, मरना कोई नहीं का गुण ही मानवता का भविष्य है, और अहिंसा ही उसे नई चाहता। जियो और जीने दो। शाकाहार, सात्विक भोजन उपलळ्यिों और समृद्धि की ओर ले जायेगी। आओ, हम अहिंसा __इसी पहलू को पोषित करते हैं। की ओर चलें। हिंसा छोड़, अहिंगा अपनायें। हम अहिंसामय अहिंसा की सोच और आगे बढ़ाती है और जीवो और बनें। हम अहिंसा के पुजारी ही नहीं, हम अहिंसा द्वारा जीने की जीने दो की जगह जियो और जीने दो में सहयोग करना। चाह का संकल्प लें, उस पर दृढ़ टिके रहने की शक्ति प्राप्त किसी को दु:खी देखकर कष्ट में देखकर, भूखा देखकर करें। चाहे कुछ भी हो हिंसा पर नहीं उतरेंगे, उस दैत्यवृत्ति से दु:ख बांटने और दूसरे के कष्ट को दूर करना भी अहिंसा दूर-दूर रहेंगे, ताकि हम मानव-मानव ही बन रहें। सीधे शब्दों में का आयाम है। आपका राजसी भोजन भूखे पड़ोसी को आदमी के आदमी बने रहने का नाम ही अहिंसा है और जानवर हिंसा की तरफ प्रवृत कर सकता है। करुणा, दया, प्रेम, या राक्षस कोई मूल से भी बनना नहीं चाहता, बनना नहीं चाहिये। आपसी सहकार की अपेक्षा अहिंसामय व्यवहार में है। कैसे अपनायें अहिंसा? परमात्मा महावीर ने अहिंसा की सूक्ष्मतम विश्लेषण एवं यद्यपि अहिंसा सभी धर्मों का सार तत्व है, अधिकतर व्याख्या करते हुए बताया। भाव हिंसा, दिमाग में या सोच धर्मों और उनकी विभिन्न सम्प्रदायों में अहिंसा को परस्पर प्रेम, में हिंसक कृत्यों का संकल्प जागना भी हिंसा है। हिंसा सहयोग, करुणा, दया आदि विभिन्न गुणों के रूप में अपरोक्ष वाणी (वचन) या कर्म के साथ-साथ भाव से भी, मन से तरीके से ही परोसा है। हिंसा को कभी-कभी किन्हीं परिस्थितियों भी होती है, बुरे भाव को यदि मनुष्य के उद्गम स्थान में “वीरता' की संज्ञा दे दी जाती है। अहिंसा की जगह दिमाग पर ही रोक दिया जाये तो हिंसक क्रिया पर स्वतः "शक्ति" की अपेक्षा भी की जाती है। अहिंसा को यदा-कदा रोक लग जायेगी। महावीर की अहिंसा में इतनी बारीकी कायरता समझ लिया जाता है। अहिंसा कायरता नहीं है। रक्षा का परहेज है। अहिंसा की बारीकियों के परिपालन में और प्रतिरक्षा के लिए हथियारों का या शक्ति का प्रयोग अहिंसा महावीर के धर्म में दीक्षित संयमी सन्तों का कोई वर्जित नहीं करती है। अहिंसा में प्राथमिकता हथियारों या शस्त्र मुकाबला नहीं। वायु काय, जल काय, अग्निकाय आदि ४. ० अष्टदशी / 2040 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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