Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 275
________________ के नाम से स्पष्ट है कि इसमें शिष्य अथवा जिज्ञासु प्रश्न करता ५. श्रवण-विधि- इस विधि के अनुसार किसी भी तथ्य है और ज्ञानी गुरूजन उन प्रश्नों का उचित उत्तर देकर शिष्य का को सुनकर या उसका श्रवण करके उसे ग्रहण करना श्रवण विधि मार्गदर्शन करते हैं। इस प्रश्नोत्तर विधि के माध्यम से गूढ़ और है। विशेषावश्यक भाष्य २१ में श्रवण में सात विधियों का उल्लेख दुरुह विषय को भी सरलतापूर्वक समझाया जाता था जिससे किया गया है- क. गुरु द्वारा कही गयी बातों को चुपचाप सुनना, विषयों को आत्मसात् करने में शिष्य को सरलता होती थी। इस ख. उसे बिना विरोध स्वीकार करना, ग. उसे अच्छा मानते हुए विधि का प्रयोग प्रौढ़ और प्रतिभाशाली छात्रों के लिए किया उसका अनुकरण करना, घ. उस विषय में अपनी जिज्ञासा व्यक्त जाता था। करना ड. उसकी मीमांसा करना, च. उस विषय का पूर्ण रूप ३. शास्त्रार्थ विधि- शास्त्रार्थ विधि प्राचीन शिक्षा पद्धति से पारायण करना, छ. गुरु की भांति स्वयं उस विषय को की एक प्रमुख विधि है। इस विधि में पूर्व और उत्तर पक्ष की अभिव्यक्त करना। स्थापनापूर्वक विषयों की जानकारी प्राप्त की जाती है। एक ही ६. पंचांग-विधि- पंचांग विधि के द्वारा वाचना, पृच्छना, तथ्य की उपलब्धि विभिन्न प्रकार के तर्कों, विकल्पों और अनुप्रेक्षा, आम्नाय और उपदेश जिसका ऊपर वर्णन किया जा बौद्धिक प्रयोगों द्वारा की जाती है। उस काल में शास्त्रार्थ का चुका है किसी विषय को समझा जाता था। मौखिक और लिखित दोनों रूप प्रचलित था। आदि पुराण में ७. पद-विधि-'पद्यन्ते ज्ञायन्तेऽनेनेति पदं' अर्थात जिसके उल्लेख है कि प्राचीन काल में शास्त्रार्थ मंत्रियों के बीच द्वारा (अर्थ) जाना जाता है वह पद है।२२ नामिक, नैपातिक, आप्ततत्व की जानकारी के लिए किया जाता था। स्वपक्ष की औपसर्गिक, आख्यानिक और मिश्र नामक इसके पांच भेद है। सिद्धि और परपक्ष में दोष निकलाना ही शास्त्रार्थ विधि का उद्देश्य पदविधि द्वारा शब्दों का वर्गीकरण करके उसके अर्थ की है। इस विधि की निम्नलिखित विशेषताएं हैं- (क) 'ननु- शब्द निश्चित अवधारणा प्रकट की जाती है तथा इसके द्वारा शब्दों के द्वारा शंका उत्पन्न करना। (ख) 'न च' या 'इति चेन्न' द्वारा नैसर्गिक शक्ति का बोध किया जाता है। शंका का निराकरण करना। (ग) यत्वेदं 'यथेकं' द्वारा पक्ष का ८. प्ररूपणा-विधि - वाच्य-वाचक, प्रतिपाद्यनिराकरण करना। (घ) अनवस्था, चक्रक, प्रसंग साधन आदि प्रतिपादक एवं विषय-विषयी भाव की दृष्टि से शब्दों का दोषों का उद्भावना या प्रस्तुत करना (ङ) 'एव' 'आह' 'अत्र' आख्यान करना प्ररूपणा विधि है। गुरु शिष्य को 'किं' 'कस्य' 'यस्तु' आदि संकेताशों द्वारा कथनों और उद्धरणों को उपस्थित 'केन' 'क्व' ‘कियत्' 'कालं' एवं 'कति विधं' इन छ: प्रश्नों कर समालोचन करना। (च) विकल्पों को उठाकर प्रतिपक्षी का द्वारा निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान समाधान करते हुए स्वपक्ष के सिद्धि के लिए आक्षेपिणी का साधन करते हुए अध्यापन करना प्ररूपणा विधि है। विक्षेपिणी' जैसे कथाओं का प्रयोग करना। (छ) 'तदुक्तं' 'नादि' जैसे शब्दों का किसी वस्तु या कथन पर बल देने के लिए इसके अतिरिक्त भी पदार्थविधि, संगोष्ठि, विधि, व्याख्या प्रयोग करना।८ विधि आदि शिक्षा की पद्धतियों का प्रयोग प्राचीन काल में गुरुओं, आचार्यों द्वारा किया जाता था। जिसका उद्देश्य गूढ़ से गूढ विषय ४. उपक्रम-विधि-जिसके द्वारा श्रोता शास्त्र को को सरल और सुबोध बनाकर छात्रों के सामने इस रूप में प्रस्तुत उपक्रम्यते अर्थात् समीप करता है उसे उपक्रम कहते हैं। अर्थात् करना था कि विषय को आत्मसात् करने में शिष्य को कठिनाई उद्दिष्ट पदार्थ को श्रोताओं की बुद्धि में बैठा देना, उन्हें अच्छी तरह न हो, यही कारण था कि प्राचीन काल मे गुरु की छत्रछाया में समझा देना उपक्रम है। इसे उपोद्धात भी कहते हैं। ही रहकर बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक विकास जिन मनुष्यों ने किसी, शास्त्र के नाम, आनुपूर्वि प्रमाण, किया जाता था। क्योंकि गुरु के सानिध्य में रहकर शिष्य केवल वक्तव्यता और अर्थाधिकार नहीं जाने हैं वे उस शास्त्र के शिक्षा ही प्राप्त नहीं करता था अपितु उसका जीवन संस्कार, पठन-पाठन आदि क्रिया फल के लिये प्रवृत्ति नहीं करते हैं। व्यवहार, कर्तव्य-बोध आदि से पूर्ण परिष्कृत हो जाता था। अतः विषयों के पाठ और उसके स्पष्टीकरण के लिए श्रीभगवद्गुणधराचार्य प्रणीत कषायपाहुड़ की चूर्णि में श्री यतिविषभाचार्य ने इस विधि में ऊपर वर्णित पांच विषयों का परिज्ञान होना आवश्यक माना है। ० अष्टदशी / 1840 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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