Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 285
________________ सूरदासजी ने इसे स्वीकार भी किया है- 'श्री वल्लभ गुरुत्व जन्मे कुम्भनदास भगवद भक्त थे तथा गरीब होने के बावजूद . सुनायो लीलाभेद बतायो,' वल्लभाचार्य ने सूर से कहा- 'सूर अत्यंत स्वाभिमानी थे। १४९२ ई० में महाप्रभु वल्लभ ने लैकै धिधियात काहे को हौ, कछु भगवद् लीला वरनन करू'। सर्वप्रथम इन्हें दीक्षा दी थी। अष्टछाप के प्रथम चार कवियों में सूर विरचित कृतियों की संख्या पच्चीस मानी जाती है वल्लभाचार्यजी के ये प्रथम शिष्य थे। इनकी गायन कला से जिनमें कुछ की प्रामाणिकता को लेकर सन्देह है। सूर-सागर, प्रसन्न होकर ही आचार्यजी ने इन्हें मन्दिर में कीर्तन की सेवा सूर-सारावली, साहित्य-लहरी आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। प्रदान की थी। इनके पद आम जनता में प्रेमपूर्वक गाए जाते थे। उन्होंने लगभग सवा लाख पदों की रचना की थी, जिनमें केवल कहा जाता है कि इनके द्वारा रचित पद को किसी गायक के कंठ ५००० पद उपलब्ध हैं जो 'सूर सागर' में संकलित हैं, इन पदों। से सुनकर सम्राट अकबर इतने मुग्ध हुए कि उन्होंने इसके की भाषा भंगिमा तथा भावाकलता अनठी है। भाव-पक्ष तथा रचयिता को फतेहपुर सीकरी आने का निमंत्रण देकर उन्हीं से कला-पक्ष दोनों दृष्टियों से उनकी रचनाएँ बेजोड हैं। सर के पदों पद सुनने की इच्छा प्रगट की। सम्राट के बुलावे पर कुम्भनदास में भक्ति, वात्सल्य तथा वियोग श्रृंगार का सजीव मार्मिक एवं सीकरी तो गए परन्तु अनिच्छापूर्वक। उनका यह भाव तब प्रगट स्वाभाविक वर्णन हर किसी को मोह लेता है। इन्होंने वात्सल्य हुआ जब सम्राट ने उनसे गायन का अनुरोध किया। कुंभनदास के पदों की रचना के कारण सर्वाधिक कीर्ति अर्जित की है। सर ने अधोलिखित पद सुनायाके पद जन-जन के कंठ में विराजते हैं। 'जसोदा हरि पालने भक्तन को कहा सीकरी सों काम। झलावे' और 'शोभित कर नवनीत लिए' जैसे पदों में शिशु आवत जात पन्हैया टूटी, बिसरी गयो हरि नाम।। कृष्ण का भावपूर्ण वर्णन हो या 'मैया मैं नहिं माखन खायो' और जाकें मुख देखे दुख लागे, ताको करन परी परनाम। 'मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ' का प्रभावी बाल वर्णन सूरदास कुम्भनदास लाल गिरधर बिन यह सब झूठो धाम।। का स्पर्श पाकर अद्वितीय बन गए हैं। भ्रमर गीत संबधी पद सूर अपने आराध्य के प्रति अगाध भक्ति के साथ-साथ यह पद की नवीन उद्भावना, भावुकता तथा दार्शनिक गांभीर्य के द्योतक रचनाकार की निस्पृहता, निर्भीकता का भी परिचायक है। यह हैं। उनकी काव्यमर्मज्ञता तथा भक्ति निष्ठा की प्रशंसा में कई पद साहित्यकार की तेजस्विता तथा स्वाभिमान के लिए आज भी उक्तियाँ प्रचलित हैं। 'सूर सूर तुलसी शशि', 'सूर शशि तुलसी गौरव के साथ दुहराया जाता है। कुंभनदास जी का निधन संवत रवि', 'सूर कबित सुनि कौन कवि, जो नहिं सिर चालन करै' १६३९ वि० (१५८२ ई.) के आसपास हुआ था। अष्टछाप के अतिरिक्त निम्नलिखित दोहा जनमानस और विद्वन्मंडली में के कवियों में सबसे लंबी आयु (११३ वर्ष) कुंभनदासजी ने उनकी लोकप्रियता प्रमाणित करता है। ही प्राप्त की थी। किधौं सूर को सर लाग्यो, किधौं सूर की पीर। कुंभनदासजी द्वारा रचित पद : किंधौ सूर को पद सुन्यो, तन-मन धुनत शरीर। जो पै चोप मिलन की होय। सूरदास के देहावसान को आसन्न जानकर गोस्वामी तो क्यों रहे ताहि बिनु देखे लाख करौ जिन कोय।। विट्ठलनाथ ने भावाकुल होकर कहा था- 'पुष्टि मारग को जहाज जो यह बिरह परस्पर व्यापै तौ कछु जीवन बनें। जात है, सो जाकों कछू लेनो होय सो लेउ' लो लाज कुल की मरजादा एकौ चित न गर्ने।। सूर विरचित एक पद : 'कुंभनदास' प्रभु जा तन लागी, और न कछू सुहाय। मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै। गिरिधर लाल तोहि बिनु देखे, छिन-छिन कलप बिहाय। जैसे उडि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवे।। परमानन्ददास (१४९३ ई०- १५८३ ई०) अष्टपद के कमल नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावे। कवियों में विशिष्ट स्थान के अधिकारी परमानन्ददास कन्नौज परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै।। निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। एक निर्धन परिवार में सं० जिहिं मधुकर अम्बुज रस चाख्यौ क्यों करील फल खावै। १५५०वि० (१४९३ ई०) को जन्मे परमानन्ददास का मन 'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै।। बचपन से ही भगवद्भक्ति मे रमता था। जनश्रुति है कि जन्म के कुम्भनदास (१४६८ ई० - १५८२ ई०) गोवर्द्धन । दिन किसी सेठ ने इनके पिता को प्रचुर धन प्रदान किया था पर्वत के निकट 'जमनावती' ग्राम निवासी कुंभनदास मूलतः । जिससे परिवार को परम आनन्द की प्राप्ति हुई थी, इसी कारण किसान थे। परासौली चंद्रसरोवर के निकट इनके खेत थे। वहीं इनका नाम परमानन्ददास रखा गया। से होकर ये श्रीनाथजी के मन्दिर में कीर्तन सेवा हेतु जाया करते परमानन्ददास कला एवं साहित्य के प्रेमी थी। वल्लभदासचार्य थे। गोखा क्षत्रिय कुल में सं० १५२५ (१४६८ ई०) को जी के सम्पर्क में आकर वे आजीवन श्रीनाथजी के मन्दिर में ० अष्टदशी / 1940 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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