Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 287
________________ नंददास द्वारा रचित पद : (भँवर गीत) लिए खोटा सिक्का, थोथा नारियल उन्हें भेट किया परन्तु कहन स्याम संदेस एक हौं तुम पै आयौ। गोस्वामीजी ने अपनी दिव्य शक्ति से उन्हें चमत्कृत कर दिया। कहन समय एकांत कहूँ औसर नहिं पायौ।। छीतू चौबे को बड़ी ग्लानि हुई और वे विट्ठलनाथजी के शिष्य सोचत ही मन में रह्यौ, कब पाऊँ इक ठाऊँ। बन गए। गोस्वामीजी ने इन्हें दीक्षा दी और अष्टछाप में शामिल कहि संदेस नंदलाल कौ, बहुरि मधुपूरि जाऊँ।। कर लिया। सुनो ब्रज नागरी।। इनके मन में ब्रज-भूमि के प्रति बड़ा आदर भाव था। इनकी सुनत स्याम कौ नाम, ग्राम घर की सुधि भूली। रचनाएँ उत्कृष्ट काव्य का प्रमाण भले ही न हो, परन्तु वर्णन की भरि आनंद-रस हृदय प्रेम-बेली द्रुम फूली। सहजता एवं सरसता प्रभावित करती है। अपने आराध्य कृष्ण पुलिक रोम सब अंग भए, भरि आए जल नैन। के प्रति इनकी अनन्य भक्ति हृदयस्पर्शी है। इनके द्वारा कीर्तन कंठ घुटे, गद्गद गिरा, बोले जात न बैन।। गायन हेतु रचे पदों की संख्या लगभग २०० है जो पदावली में विवस्था प्रेम की।। संकलित हैं। गोवर्द्धन के निकट पूंछरी ग्राम में इनका देहांत सं० गोविन्द स्वामी (१५०५ ई०-१५८५ ई०) : भरतपुर १६४२ वि० को हुआ था। (राजस्थान) के आँतरी गाँव में सं० १५८५ वि० को एक छीतस्वामी रचित आसक्ति का पद : सनाढ्य ब्राह्मण परिवार में जन्मे गोविन्द स्वामी आरम्भ से ही अरी हौं स्याम रूपी लुभानी। कीर्तन-भजन के अनुरागी थे। उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्री को मारग जाति मिले नंदनन्दन, तन की दसा भुलानी।। त्यागकर ब्रज मंडल में बसना स्वीकार किया। वे सुकवि तो थे मोर मुकुट सीस पर बाँकौ, बाँकी चितवनि सोहै। ही प्रसिद्ध संगीतशास्त्री भी थे। कहा जाता है कि संगीत सम्राट अंग अंग भूषन बने सजनी, जो देखै सो मोहै।। तानसेन ने भी इनसे संगीत शिक्षा प्राप्त की थी। किसी भक्त द्वारा मो तन मुरिकै जब मुसिकानै, तब हौ छाकि रही। गोविन्द स्वामी रचित पद सुनकर विट्ठलनाथजी बहुत प्रभावित हुए 'छीत स्वमी' गिरिधर की चितवनि, जाति न कछू कही।। और इन्हें दीक्षा देकर श्रीनाथजी की कीर्तन सेवा में लगा दिया। चतुर्भुजदास (१५३० ई०-१५८५ ई०) : अष्टछाप इनके पदों की संख्या लगभग ६०० है। २५२ पद के प्रतिष्ठित कवि कुंभनदास के सबसे छोटे पुत्र चतुर्भुजदास का 'गोविन्दस्वामी के पद' कृति में संकलित हैं। इन्होंने बाल लीला जन्म सं० १५८७ (१५३० ई०) को जमुनावती ग्राम में हुआ तथा राधाकृष्ण शृंगार के पद रचे हैं। सहज एवं मार्मिक था। भजन-कीर्तन और भक्ति का संस्कार इन्हें पिता से विरासत अभिव्यक्ति तथा भाव गाम्भीर्य इनके पदों की खासियत है। में मिला था अतः इनका मन परिवार एवं गृहस्थी से विरत रहता इनका देहावसान गोवर्द्धन में सं० १६४२ वि० (१५८५ ई०) था। कुंभनदासजी ने इन्हें संगीत की शिक्षा प्रदान कर पुष्टि को हुआ था। काव्य की अपेक्षा गेयता की दृष्टि से इनके पद सम्प्रदाय में दीक्षित कराया था। संगीत एवं कविता में इनकी अधिक प्रभावशाली हैं। विशेष रुचि थी। ये आजीवन श्रीनाथजी के मन्दिर में सेवारत थे। गोविन्द स्वामी रचित बाल लीला का एक पद : इनका देहावसान सं० १६४२ वि० (१५८५ ई०) को हुआ झूलो पालने बलि जाऊँ। था। इनकी उपलब्ध कृतियाँ है- 'चतुर्भुज कीर्तन संग्रह', कीर्तनावली और दानलीला। रचनाओं में 'भक्ति और श्रृंगार की श्याम सुन्दर कमल लोचन, देखत अति सुख पाऊँ।। अति उदार बिलोकि, आनन पीवत नाहिं अघाऊँ। छटा यत्र-तत्र परिलक्षित होती है। चुटकी दै दै नचाऊँ, हरि को मुख चूमि-चूमि उर लाऊँ।। चतुर्भुजदास रचित पद : रुचिर बाल-विनोद तिहारे निकट बैठि कै गाऊँ। जसोदा कहा कहो हौं बात। विविध भाँति खिलौना लै-लै 'गोविन्द' प्रभु को खिलाऊँ।। तुम्हारे सुत के करतब मापै, कहत कहे नहिं जात।। छीत स्वामी (१५१५ ई०-१५८५ ई०) छीतस्वामी मथुरा के भाजन फोरि, ढोरि सब गोरस, लै माखन दधि खात। चतुर्वेदी ब्राह्मण थे और आरंभ में बड़ी उदंड प्रकृति के थे। इनके जो बरजौं तो आँखी दिखावै, रंचहु नाहिं सकात।। घर में पंडागिरी और जजमानी होती थी। कहा जाता है कि ये और अटपटी कहाँ लौ बरनौं, छुवत पानि सों गात. बीरबल के पुरोहित थे। इनका प्रचलित नाम छीतू चौबे था और 'चतुर्भुज' प्रभु गिरिधर के गुन हौ, कहति कहति सकुचात।। ये मथुरा में लड़ाई-झगड़े तथा चिढ़ाने आदि के लिए कुख्यात थे। अंतत: कह सकते हैं कि अष्टछाप के इन साधकों की अपनी यौवनावस्था में इन्होंने विट्ठलनाथजी की परीक्षा लेने के रचनाएँ कृष्णलीला पर केन्द्रित होने के कारण विषय की दृष्टि ० अष्टदशी / 1960 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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