Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 255
________________ नारदजी ने व्यासजी से कहा था कि "भगवन् महाभारत में आपने भक्ति की कमी रक्खी, इसलिए आपको शांति नहीं मिल रही है। अब आप कोई ऐसा ग्रंथ निर्माण कीजिए, जिससे मनुष्यों में भक्ति का प्रसार हो। इसके फलस्वरूप आपको शांति मिलेगी। इसी पर व्यास भगवान ने श्रीमद्भागवत का सृजन किया । पर भगवद्गीता भी तो महाभारत का ही अंग है और गीता भक्तिमार्ग से शून्य नहीं है इसलिए यह कहना कि महाभारत में भक्ति को स्थान नहीं है, सर्वथा सही नहीं कहा जा सकता । भागवत धर्म के अंतर्गत कर्मयोग और भक्ति दोनों का ही समावेश है, जो भगवद्गीता का विशेष रहा है। लोक कल्याण ही श्रेष्ठ यज्ञ है दृढ़ निश्चयवाला है, मन पर गीता की भक्ति श्रीमद्भागवत की भक्ति से भिन्न है । गीता की भक्ति में भावावेश नहीं है। गीता की भक्ति तर्क और बुद्धि के आधार पर अवस्थित है। वैसे तो गीता के हर अध्याय में कर्मयोग के साथ-साथ श्रीकृष्ण भगवान भक्ति पर भार देते ही रहे हैं। पर बारहवें अध्याय का नामकरण ही भक्तियोग किया है। इसलिए इस अध्याय में नामकरण ही भक्तियोग किया है। इसलिए इस अध्याय में भक्ति की विशेष चर्चा है। भक्ति के संबंध में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रारंभ भगवान ने अर्जुन को बता दिया कि जो अक्षर, अनिर्देश्य, Jain Education International अव्यक्त, अचिंत्य, कूटथल, अचल और ध्रुव सत्ता को पूजा करते हैं, जो सर्वत्र सम बुद्धि रखते हैं, इंद्रियों का निग्रह करते हैं, वे सर्वभूतों के हित की कामना करनेवाले मुझ ईश्वर को ही प्राप्त होते हैं। पर साथ ही अर्जुन को यह भी बता दिया कि देहधारियों के लिए अव्यक्त ईश्वर की यह उपासना कठिन है. यह कहकर श्रीकृष्ण ने सगुण उपासना को अपेक्षाकृत अधिक सुलभ बताकर इसी पर भार दे दिया और साथ ही इस मार्ग की विस्तारपूर्वक चर्चा भी की। उन्होंने कहा- "जो सारे कर्म मुझमें अर्पण करते हैं, मेरा ही ध्यान करते हैं, मेरी ही अनन्य भाव से उपासना करते हैं, उनका में संसार सागर से शीघ्र उद्धार कर देता हूँ इसलिए है अर्जुन तू अपना मन मुझ पर ही लगा । अपनी बुद्धि का निवा भी मेरे ही भीतर कर ऐसा करने से तेरा निवास भी मेरे भीतर ही स्थित हो जायेगा। जो प्राणी मात्र से मैत्री करता है, दयावान, जिसमें 'मैं और मेरा' ऐसी वासना विलीन हो गयी है, सुख और दुःख से जो अतीत है, क्षमावान है, सदा सन्तुष्ट है, जो यत्नवान और बुद्धि को मुझमें संपूर्णतया अर्पण करता है, वह मेरा भक्त है और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है । जिससे न लोग क्षुब्ध होते हैं, न वह लोगों से क्षुब्ध होता है, हर्ष और क्रोध से जो अतीत है, न भयभीत है, जिसने इच्छा का त्याग कर दिया है, शुद्ध है, चतुर है, कामना रहित है, व्यथा से रहित है, जिसने संकल्पों का त्याग कर दिया है, जो न तो किसी वस्तु से प्रेम करता है और न द्वेष करता है, न चिंता करता है, और न इच्छा करता है, शुभ-अशुभ में जो समान है, मित्र और से समान भाव से जो व्यवहार करता है, शत्रु मान और अपमान में भी जो समान है, ठंडी-गर्मी, सुख-दुःख से विचलित नहीं होता, किसी वस्तु में आसक्ति नहीं है, निंदा-स्तुति में समान है, अधिक नहीं बोलता, जो भी मिल जाये उसी से संतुष्ट है, बुद्धि जिसकी स्थिर है, वह मेरा भक्त है और वही मुझे प्रिय है। इस तरह विस्तारपूर्वक भक्त के छत्तीस लक्षण गीताचार्य ने बतलाये हैं । रास-क्रीड़ा की या तो नाम स्मरण की कोई महिमा नहीं गायी। कर्मयोगी के लक्षणों की ऊपर चर्चा हो चुकी है। भक्त के लक्षणों की भी चर्चा हो चुकी कर्मयोगी और स्थितप्रज्ञ और गुणातीत के लक्षण भी इन्हीं से मिलते-जुलते हैं। इन दो में भेद क्या ? भक्ति को गीताचार्य ने एक ऐसे ऊँचे स्तर पर रख दिया है कि उसका रास - क्रिया से मेल नहीं खाता । वास्तविक स्थिति तो यह है कि न तो कर्मयोगी के लिए ही और न भक्तियोग के योगी के लिए ही संसार सागर से पार करना कोई सस्ता सौदा ० अष्टदशी / 164 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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