Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 230
________________ डा० (श्रीमती) कुसुम चतुर्वेदी शिक्षक की जवाबदेही के सम्बन्ध में कुछ प्रचलित धारणाएँ विचारणीय हैं प्रथम जबकि समाज के सभी क्षेत्रों में जवाबदेही लुप्तप्राय है, ऐसी स्थिति में मात्र शिक्षक से उसकी आशा कहाँ तक उचित है? द्वितीय शिक्षा एक सतत चक्राकार प्रक्रिया है जिसके सुचारु संचालन में मात्र शिक्षक एक घटक नहीं है, इस प्रक्रिया और प्रणाली में नीति निर्माता, उच्च प्रशासन, सामुदायिक प्रतिनिधि, राजनेता, विद्यालय व्यवस्थापक, अभिभावक एवं स्वयम् शिक्षार्थी की भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जवाबदेही कम महत्व नहीं रखती। इन समस्त महत्वपूर्ण घटकों के अतिरिक्त शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण, पाठ्यक्रम निर्माण, पाठ्यपुस्तक के प्रचलन, प्रवेश नीति निर्धारण एवं उत्तीर्ण होने के मानदण्डों आदि के सम्बन्ध में शिक्षक की भूमिका के प्रति अस्वीकृति का भाव एवं मात्र परीक्षा परिणामों पर अध्यापकीय उपलब्धियों का आकलन ये समस्त पक्ष भी जवाबदेही को निषेधात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। तृतीय- टैक्नोलॉजी के बढ़ते प्रभाव के कारण शिक्षक की भूमिका विवादों के घेरे में है किन्तु इस सम्बन्ध मे मेरा अभिम - शिक्षक की नैतिक जवाबदेही यह है कि टैक्नोलॉजी साधन मात्र है, साध्य नहीं। वस्तुतः यह संवाद में सहायक हो सकती है, संवेदनाओं की वाहिका नहीं हो सकती । पुनः ज्ञान एक आयामी नहीं होता, तदर्थ परस्पर अन्तःक्रिया का महत्व होता है। इसी आधार पर ब्राउन जैसे महान विचारक ने डिस्टेन्स लर्निंग की विफलता के विषय में स्वीकार किया कि 'यह कभी भी उस शिक्षा प्रणाली का स्थान नहीं ले सकती जिसमें लोग इकट्ठा होकर शैक्षिक ज्ञान और योग्यताएँ हासिल करते हैं ।' उपभोक्ता संस्कृति के सर्ववासी संक्रमण के इस युग में जहाँ सम्पत्ति और सत्ता का समग्रीकरण, संस्कृति का विकृतिकरण, राजनीति का अपराधीकरण तथा सम्बन्धों के बाजारीकरण के कारण सम्पूर्ण मानव प्रजाति का विश्वव्यापी व्याकरण विशृंखलित होता चला जा रहा है वहाँ शिक्षा का परिदृश्य कैसे पृथक तथा असंपृक्त हो सकता है ? किन्तु यह कदापि विस्मरण योग्य नहीं कि शिक्षा बाल व्यक्तित्व में एक विशेष प्रकार की आत्मीयता एवं आस्था के संचरण का साधन है । अन्य शब्दों में व्यक्तित्व की सतत पुनर्रचना, व्यक्तित्व को गढ़ने की अविराम रूपरेखा जिसमें अनथक प्रयत्न एवं संयम की आवश्यकता होती है, शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव है तथा इस सम्भावना - सिद्धि में प्रमुख अभिकर्ता के रूप में शिक्षक की जवाबदेही असंदिग्ध है। जवाबदेही का संप्रत्यय वस्तुतः नीतिशास्त्रीय और नैतिक है जो स्वयम् में 'जयनात्रीतिरुच्यते' तथा 'कर्तव्यमेवं न कर्तव्यमित्यात्मको यो धर्मः सानीति:' एवं 'श्रेय' जैसे प्रमुख प्रतिपाद्यों को समाहित किये हुए हैं। इस दृष्टि से जवाबदेही को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है: नैतिक दृष्टि से अपने शिक्षार्थी समुदाय के प्रति उस संगठन के प्रति जिसमें सेवा रत हैं तथा अंततोगत्वा समाज के प्रति श्रेय के अंतिम लक्ष्य के प्रति शिक्षकों द्वारा कर्तव्यों का निर्वहन । , Jain Education International - छ अष्टदशी / 139 - स्पष्ट है कि टैक्नोलॉजी के पार्ट पर तो यह सुनिश्चित है कि यह शिक्षक की स्थानापत्र नहीं हो सकती, किन्तु चूंकि समाज के लिये जवाबदेही एक अनस्तित्वपूर्ण संप्रत्यय बनती चली जा रही है इसलिये यथास्थितवाद का पोषक हो जाना अथवा बहती गंगा में हाथ धोने की मानसिकता का शिकार हो जाना यह स्वयम् के प्रति अनास्थाभाव का द्योतक है। इसी अनास्था और नास्तिकता के वशीभूत शिक्षक शिक्षक न रह कर अनुबन्धित और व्यावसायिक कर्मचारी मात्र रह जाता है जिसका लक्ष्य मात्र ट्यूशन, मात्र अपने अधिकारों के लिये वार्ता हडताल और प्रदर्शन के प्रति आसक्ति के अतिरिक्त जवाबदेही के नाम पर कुछ भी नहीं रह जाता, परिणाम यह होता है कि शिक्षार्थी आस्था की जिस थाती को लेकर स्कूल / कॉलेज आता है, उसे खोकर स्वेच्छाचारिता की आसुरी सम्पदा का स्वामी बनकर लौटता है। For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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