Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

View full book text
Previous | Next

Page 231
________________ अतः आवश्यकता है आत्मावलोकन, आत्मचिन्तन और आत्मविश्लेषण की । अध्यापकीय सेवा के इस परिधान के तकाजे के अधीन इस तथ्य को हृदयंगम करने की कि अध्यापक का मूल अर्थ केवल ले जाने वाला नहीं है, अधि लगा है उसमें, जिसका अर्थ है किसी विशेष जगह ले जाने वाला, किसी अधिष्ठान तक पहुँचाने वाला, एक निश्चित लक्ष्य तक ले जाने वाला और ले ही जाने वाला नहीं उसे सम्पन्न करने वाला, प्रतिष्ठित करने वाला, तदर्थ आवश्यकता है अध्यापक स्वयम् सम्पन्न हो, स्वयम् प्रतिष्ठित हो तभी नैतिक जवाबदेही की सम्भावना की सिद्धि सम्भव है । इस दृष्टि से शिक्षक की विशेष रूप से शिक्षार्थी के प्रति प्रमुखतया तीन नैतिक प्रतिबद्धताएँ है: वैचारिक निष्ठा : तदर्थ शिक्षक को मात्र ज्ञान का संप्रेषक होना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उसका प्रज्ञावान होना आवश्यक है। वह जो कुछ शिक्षार्थी को देना चाहता है उसे उस विषय का पूर्ण निष्णात, पूर्ण ज्ञाता चाहिये, किन्तु प्रज्ञावान केवल बुद्धिमान व्यक्ति नहीं है। प्रज्ञावान व्यक्ति वह है जो वस्तुओं, व्यक्तियों और घटनाओं आदि के तथ्यों को उचित रूप में अध्ययन कर उनकी व्याख्या करने में सक्षम हो, जो अपने शिष्य के गूढ़ से गूढ़, जटिल से जटिल प्रश्नों का अत्यन्त धैर्य के साथ विधिवत समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम हो, वह जिस विषय का भी संस्पर्श करे उसे पराकाष्ठा तक पहुँचाने की सामर्थ्य उसमें हो। आशय यह कि शिक्षक के व्यक्तित्व में ज्ञान का गाम्भीर्य इतना सशक्त होना चाहिये कि विद्यार्थी श्रद्धावनत होने के के लिये विवश हो जाये। गीता के आठवें अध्याय में एक साथ अनेक प्रश्नों की बौछार और गीता के शिक्षक श्रीकृष्ण द्वारा अत्यन्त धैर्य के साथ दिये गये उत्तर उनकी ज्ञान-गरिमा की प्रतिष्ठा के परिचायक है। ये उत्तर वस्तुतः शिक्षक की जवाबदेही के उस नैतिक पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं कि जिसके पास देने को है, वह देने के लिये विवश है, इस दृष्टि से शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध माँ और बालक के सम्बन्ध के समकक्ष हैं जिसे गोपीनाथ कविराज ने महाभाव की संज्ञा से संज्ञापित किया है। यह सम्बन्ध वस्तुतः त्याग के स्तर का नहीं वरन् प्रेम के स्तर का है, क्योंकि त्याग में तो द्वैत है, प्रेम में अद्वैत होता है। इस प्रकार प्रेमाधारित वैचारिक निष्ठा ही नैतिक जवाबदेही का पर्याय हो सकती है और यह मात्र अध्यापन की औपचारिकता से संभव नहीं होगा, स्वयम गहराई में जाना होगा, अपने शिक्षार्थी को 'गहरे पानी पैठ' की हद तक लेकर जाना होगा, ऐसी लगन और गहराई में जाने की साथ जो पैदा कर सके, वही अध्यापक है। ऐसे अध्यापक ही भगवान बुद्ध की भाँति आत्मदीपोभव का संदेश दे सकते हैं। Jain Education International भाव निष्ठा : इयान पियर्सन जैसे लोग वह घोषणा कर रहे हैं कि भविष्य टैक्नोलॉजी के हाथ में है, दूसरी ओर आत्म हत्याओं की संख्या में वृद्धि, अध्यात्म की शरण में जाकर भावनात्मक और मानसिक समस्याओं से निजात पाने की प्रवृति, प्रबन्धन में इमोशनल एवं स्प्रिच्युल कोन्शियेन्स जैसी अवधारणाओं का पढ़ाया जाना, शिक्षा एवं प्रबन्धन तक के पाठयक्रम में पतंजलि योगदर्शन के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्षों के अध्ययन की अनुशंसा, साइबर दुकानों के समानान्तर योग, नेचुरोपेथी, ताई ची और रेकी जैसे उपक्रम, आध्यात्मिक संगीत और कैसेट के एक पृथक बाजार का निर्माण टैक्नोलॉजी के समानान्तर ये समस्त प्रावधान इस तथ्य के द्योतक है कि आदमी की प्राथमिकता डिजिटल क्रान्ति नहीं है। नई टैक्नोलॉजी से व्युत्पन्न सुखबोध प्रत्येक रोग का इलाज नहीं है, आदमी की बुनियादी जरुरत भावनात्मक है। गाँधी जी कहा करते थे कि शिक्षा का अर्थ मात्र अक्षर ज्ञान नहीं है, अक्षर ज्ञान से आशय मनुष्यत्व से भी नहीं है, मनुष्य का मनुष्यत्व सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, क्षमा, शौर्य आदि उच्च भावनाओं के साथ एक रूप होने में है। शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में भावनाओं की शुद्धि और उनका विकास शरीर के पोषण के ही साथ संयुक्त होना चाहिये भाव संशुद्धि और विकास की दृष्टि से शिक्षा के दायित्व के रूप में शिक्षा के मूल घटक परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि कुटुम्ब में ही समाज सेवा का बीज निहित है। पुन: इस दायित्व का निर्वहन शिक्षा की जवाबदेही है, किन्तु प्रथम दृष्टया अत्यधिक आकर्षित प्रतीत होने वाली "ऑन लाइन डायग्नोसिस" और "डिस्टेन्स लर्निंग" जैसी शैक्षिक अवधारणाओं से यह सम्भव नहीं है, क्योंकि शिक्षा सम्बन्धी ये अवधारणाएँ जीवन को देखने की मौलिक दृष्टि प्रदान करने में नितान्त असमर्थ है। इनके दुष्प्रभाव ने शिक्षा में रुग्ण और विक्षिप्त व्यक्तित्व को जन्म दिया है, जो हृदयहीन और भाव शून्य है, जिसके पास मनुष्यता नहीं, करुणा नहीं, प्रेम का कोई झरना नहीं, प्राणों की कोई ऊर्जा नहीं, जो मात्र हिसाब लगाने वाली कम्प्यूटर मशीन के समान जीवन का बोझा उठाने में अपना अभ्युदय और निःश्रेयस स्वीकार कर स्वयम् को धन्य समझता है। इस दृष्टि से अपने विद्यार्थियों के प्रति शिक्षक की भावनात्मक प्रतिबद्धता का विशेष महत्व है, तदर्थ आवश्यकता है: शिक्षक द्वारा अपने पूर्वाग्रहों, आशाओं, आशंकाओं को आरोपित करने के स्थान पर शिक्षार्थी को समझने की, उसकी भावनाओं को समझने की प्रभुत्व प्राप्त करने की जटिल तथा भयंकर वासना के अधीन दुराग्रह पूर्वक आत्मतुष्टीकरण हेतु ० अष्टदशी / 1400 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342