Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 227
________________ पुन: एक बार मेरे सामने खोल दिया। इस पुस्तक के प्रकाशन की कल पांच बजे की गाड़ी से कलकत्ते जाकर टाइप करा ला। विचित्र पृष्ठभूमि अकस्मात मेरी स्मृति में उभरी। हिन्दी साहित्य को परसों मुझे इसकी कापियाँ मिल जानी चाहिए।' आचार्य द्विवेदी जी को इसके पीछे एक विदेशी महिला की आस्था, आचार्य जी ने सकुचाते हुए पूछा, "दीदी, कोई पाण्डुलिपि निष्ठा और लगा है, यह कुछ अनहोनी के घटने जैसा लगता है। मिली है क्या?" पुस्तक के कथामुख (भूमिका) और उपसंहार-अभ्यास में जितना दीदी ने डाँटते हुए कहा, "एक बार पढ़कर तो देख। ... कुछ दृश्य है, उससे कहीं अधिक अदृश्य है। इन पंक्तियों का तू बड़ा आलसी है। देख रे, बड़े दुःख की बात बता रही हूँ।... सम्बन्ध इन दो प्रकरणों से ही है, मुख्य कथावृत्त से नहीं। उनमें जो स्त्रियाँ चाहें भी तो आलस्यहीन होकर कहाँ काम कर सकती दृश्य है, पहले उसे सार रूप में रखता हूँ। है?"... तू... बाद में पछतायेगा। पुरुष होकर इतना आलसी होना मिस कैथगईन आस्ट्रिया के एक सम्भ्रांत ईसाई परिवार की ठीक नहीं। तू समझता है, यूरोप की स्त्रियाँ सब कुछ कर सकती महिला थीं। अपने देश में ही उन्होंने संस्कृत और हिन्दी का बहुत हैं? गलत बात है। हम भी पराधीन हैं। समाज की पराधीनता जरूर अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। भारतीय विद्याओं के प्रति कम है. पर प्रकति की पराधीनता तो हटाई नहीं जा सकती। आज असाम अनुराग के वशाभूत, अड़सठ वर्ष का आयु म व भारत देखती हूँ कि जीवन के ६८ वर्ष व्यर्थ ही बीत गए।" आईं और आठ वर्षों तक यहाँ के ऐतिहासिक स्थानों का अथक दीदी की आँखें गीली हो गईं। उनका मुख कुछ और कहने भाव से भ्रमण करती रहीं। आचार्य हजारीप्रसाद जी उन्हें दीदी के लिए व्याकुल था, पर बात निकल नहीं रही थी। न जाने किस कहा करते थे जो उनके अंचल में दादी का एकार्थक है। उस अतीत में उनका चित्त धीरे-धीरे डूब गया। जब ध्यान भंग हुआ, वृद्धा का भी उन पर पौत्र के समान ही स्नेह था। अपनी कष्ट तो उनकी आँखों से पानी की धारा बह रही थी और वे उसे पोंछने साध्य यात्राओं के बाद जब वे आचार्य जी के उधर से निकलती का प्रयत्न भी नहीं कर रही थीं। आचार्य जी ने अनुभव किया तब अपनी पाली हुई बिल्ली के अलावा उनके पास जगह-जगह कि दीदी किसी बीती हुई घटना का ताना-बाना सुलझा रही हैं। से इकट्ठी की हुई बहुत-सी पुरातन चीजें होतीं। उनका इतिहास बताते समय उनका चेहरा श्रद्धा से गद्गद् हो जाता उनकी छोटी आचार्य जी ने कागजों को पढ़ा। शीर्षक के स्थान पर मोटेछोटी नीली आँखें भावों के उद्रेकवश गीली हो जातीं। उनकी मोटे अक्षरों में लिखा था 'अथ बाणभट्ट की आत्मकथा लिख्यते'। बालसुलभ निर्मलता भोलेपन की सीमा को छूती थी। उसका पढ़ने के बाद आचार्य जी को लगा कि दीर्घ काल के बाद संस्कृत लाभ उठा कर कुछ लोग उनके बहुमूल्य संग्रह में से कुछ चीजें साहित्य में एक अनूठी चीज प्राप्त हुई है। आचार्य जी को दबा लेते। उन्हें उसका पता भी नहीं चलता। कलकत्ता में एक सप्ताह लग गया। इस बीच दीदी बिना पता ठिकाना दिये काशीवास करने चली गई। दो साल तक वह कथा __ भारत और भारतीय संस्कृति के साथ उनका गहन लगाव, यूँ ही पड़ी रही। एक दिन अचानक मुगलसराय स्टेशन पर गाड़ी किसी पूर्व जन्म के संस्कारों से अनुबन्धित-सा लगता था। जब बदलते हुए आचार्य जी को वे फिर मिल गईं। आचार्य जी को वे ध्यानस्थ होती तो उनका वलीकुंचित मुखमंडल बहुत ही देख कर जरा भी प्रसन्न नहीं हुई। केवल कुली को डाँटकर कहती आकर्षक लगता और वे साक्षात सरस्वती-सी जान पड़ती। रही "संभाल के ले चल, तू बड़ा आलसी है।" आचार्य जी ने समाधि के उपरान्त उनकी बातों में अनूठी दिव्यता होती। उन्हें कहा, 'दीदी वह आत्मकथा मेरे ही पास पड़ी है।' दीदी बड़े अंतिम बार वे राजगृह से लौटीं। द्विवेदी जी से मिलीं और गुस्से में थीं। रुकी नहीं। गाड़ी में बैठकर उन्होंने एक कार्ड बोली “देख, इस बार शोण नद के दोनों किनारों की पैदल यात्रा __ फेंककर कहा, 'मैं देश जा रही हूं। ले, मेरा पता है। ले भला।' कर आई हूँ। थकी हुई हूँ। तुम कल आना।" दूसरे दिन आचार्य पुस्तक के प्रकाशन के बीच आचार्य जी को आस्ट्रिया से जी जब उनके स्थान पर पहुंचे, तब नौकर ने बतलाया कि उस दीदी का पत्र मिला। वह उपसंहार में संकलित है। इस पत्र से रात वे दो बजे तक चुपचाप बैठी रहीं और फिर एकाएक अपनी कथा का रहस्य और भी घना होता है। साथ ही उसमें लक्षित टेबल पर आकर लिखने लगीं। रात भर लिखती रहीं। लिखने दृश्य के ऊपर अदृश्य की अवांछित छाया मन में टीस-सी पैदा में इतनी तन्मय रहीं की दूसरे दिन आठ बजे तक लालटेन बुझाए करती है। उस छाया की, उस अदृश्य की अनुभूति आपको भी बिना ही लिखती रहीं। फिर टेबल पर ही सिर रख कर सो गई हो, इस दृष्टि से उस पत्र को अंशत: नीचे उद्धृत कर रहा हूँ। मगर और अपराह्न तीन बजे तक सोई रहीं। अब वे स्नान कर के चाय उद्देश्य केवल उतना ही नहीं। पत्र का कलेवर जितना छोटा है, पीने जा रही थीं। आचार्य जी को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और कथ्य उतना ही गम्भीर और बहुमूल्य है। अतीत के अतल गह्वर बोली 'शोण-यात्रा में मिली सामग्री का हिन्दी रूपान्तर मैंने कर से अवतरण लेती कोई दिव्यात्मा जैसे बतला रही है कि किस लिया है।... आनन्द से इसका अंग्रेजी में उथला करा ले... और तरह जगत में सब एक ही धूव पर स्थित हैं। ऊँचा जीवन-दर्शन ० अष्टदशी / 1360 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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