________________ પરિશિષ્ટ-૧૪ 18 દોષોથી રહિત તે જ ભગવાન तपोगणगगनदिनमणि-न्यायांभोनिधि-श्रीमद-विजयानन्दसूरीश्वरजी प्रसिद्ध नाम श्री आत्मारामजी महाराज विरचित जैन तत्त्वादर्श (पूर्वार्ध) જૈન તત્ત્વાદર્શ ___ ए पूर्वोक्त चार मूलातिशय ओर आठ प्रातिहार्य एवं बारां गणों करी विराजमान अर्हन्त भगवन्त परमेश्वर है / और अठारह दूषण कर के हित है / सो अठारह दूषणों के नाम दो श्लोक कर के लिखते हैं। अन्तराया दानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः / हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च / / कामा मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा चाविरतिस्तथा / रागो द्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाप्यमी / / (अभि. चिं. कां. 1, श्लो. 72-73) इन दोनों श्लोकों का अर्थ : 1. 'दान देने में अन्तराय' 2. 'लाभगत अन्तराय', 3. 'वीर्यगत अन्तराय', 4. जो एक बेरी भोगिये सो भोग-पुष्पमालादि, तद्गत जो अंतराय सो ‘भोगान्तराय', 1. पृ. ८.१५थी जो पनि 12: 3त 28 7, भाषा 5. आत्माराम म.नी पोतानी छ. / जो कर्म आत्मा के दान, लाभ, वीर्य, भोग और उपभोग रूप शक्तियों का घात करता है उसे अन्तराय कर्म कहते हैं / उसके दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय ये पांच भेद है। 1. दान की सामग्री उपस्थित हो, गुणवान् पात्र का योग हो और दान का फल ज्ञात हो तो भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता वह 'दानान्तराव' है। 2. दाता उदार हो दान की वस्त उपस्थित हो याचना में कशलता हो तो भी जिस कर्म के उदय से याचक को लाभ न हो सके वह लाभान्तराय है / अथवा योग्य सामग्री के रहते हवे भी जिासा कर्म उदय से जीव की अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति नहीं होती, उसको 'लाभान्तराय' कहते हैं / 3. वीर्य का अर्थ सामथ्य है / बलवान हो, नीरोग हो और यवा भी हो तथापि जिस कर्म उदय से जीव एक तृण को भी टेढा न कर सके वह 'वीर्यान्तराय' है / 4. भोग के साधन मौजूद हां, वैराग्य भी न हो, तो भी जिस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं को भोग न कर सके वह 'भोगान्तराय' है / 244 અરિહંતના અતિશયો